ज्ञानव्यापी-आखिर ज्ञानवापी क्या कह रही है?

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1235 में शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ने विदिशा और उज्जैन पर हमला किया था। विदिशा के विजय मंदिर को मिटाने के बाद पहली बार उज्जैन में महाकाल मंदिर को भी ध्वस्त किया गया। उज्जैन से वह महाकाल और विक्रमादित्य की मूर्ति ढोकर दिल्ली तक ले गया और वहां की किसी जामा मस्जिद के बाहर फिंकवाया ताकि काफिर सबक लें।

#vijay manohar tiwari (विजय मनोहर तिवारी )

यह भारत में कानून के राज और प्रतिष्ठा का एक और उदाहरण है कि एक स्वयंसिद्ध मामला सर्वे, जांच, साक्ष्य और पक्ष-विपक्ष के तर्क-वितर्कों से होकर किसी निष्कर्ष की ओर जाता हुआ हम देख रहे हैं। एक ऐसा मामला, जो दिन की रोशनी की तरह साफ है।

ज्ञानवापी के सफेद गुंबदों के नीचे सदियों पुराने पत्थरों की हर सलवट अपने आप में एक प्रकट साक्ष्य है। मजबूत तथ्य है। अकाट्य तर्क है। किंतु आज यह एक विवाद है, जिसमें एक दूसरा पक्ष भी है और अगर संविधान है तो सब कुछ संविधान और कानून के मुताबिक तय होता हुआ दिखना भी चाहिए।

क्या हुआ जो कुछ साल या महीने और लग जाएंगे। वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर को आखिरी बार टूटे हुए ही साढ़े तीन सौ साल हो गए। वह आठ सौ साल में कम से कम तीन बार तोड़ा गया है।

जरा कल्पना कीजिए, जिस दिन आगरा, दिल्ली या जौनपुर के तख्तों पर बैठे इस्लामी हुक्मरानों के इशारे पर जिहादी जत्थे वाराणसी या मथुरा या अयोध्या की तरफ झपटते होंगे तब आखिरी संघर्ष के बाद इन बस्तियों में कैसा मातम पसरता होगा?

अगली ही सुबह मंदिर धूल-धूसरित लाश की तरह आंखों के सामने पड़े रहते होंगे। फिर कोई इन्हीं के मलबे से इबादतगाहें बना देते होंगे। ऐसा केवल ज्ञानवापी या बाबरी ढांचे में या मथुरा में ही नहीं हुआ।

बंगाल में प्राचीन राजधानी गौड़ से लेकर गुजरात में पाटन और सिंध से सोमनाथ तक के प्राचीन देवस्थलों को ढहाने की एक सदियों लंबी फेहरिस्त है। इन हजार-आठ सौ सालों के दौरान 60 से ज्यादा समकालीन लेखकों ने अपनी आंखों देखी लिखी है, जिनमें मंदिरों को मिटाने के जिक्र जगह-जगह बिखरे हुए हैं।

देश के गांव-गांव में पुराने मंदिरों की तबाही के सबूत मौजूद हैं। मंदिरों को सिर्फ लूटकर तोड़ना या मस्जिदें बनाना ही नहीं, बल्कि देवी-देवताओं की मूर्तियों को ढो-ढोकर मस्जिदों की सीढ़ियों पर लगवाना या फिंकवाना, तोड़कर कसाइयों को देना ताकि वे मांस बेचने के लिए इस्तेमाल में लाएं। यह सब कुछ हमारे पुरखों की आंखों के सामने हुआ। जो उनसे संघर्ष में मारे गए, उनका तो कोई हिसाब ही नहीं है।

सिर्फ एक उदाहरण। 1235 में शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ने विदिशा और उज्जैन पर हमला किया था। विदिशा के विजय मंदिर को मिटाने के बाद पहली बार उज्जैन में महाकाल मंदिर को भी ध्वस्त किया गया। उज्जैन से वह महाकाल और विक्रमादित्य की मूर्ति ढोकर दिल्ली तक ले गया और वहां की किसी जामा मस्जिद के बाहर फिंकवाया ताकि काफिर सबक लें।

उस घटना के 70 साल बाद इब्नबतूता दिल्ली आया और उसने इन मूर्तियों को देखकर पूछताछ की। उसे बताया गया कि इल्तुतमिश इन्हें उज्जैन से लेकर आया था। ऐसे सैकड़ों विवरण किताबों में हैं। वह जालौर को लूटकर लौट रहा था तब एक लेखक ने लिखा कि दिल्ली में मंदिरों को गिराने का काम पूरा हो गया है। वह महरौली के 27 मंदिरों की रिपोर्ट दे रहा है, जहां आज कुतुबमीनार खड़ी है।

भारत के मध्यकाल का इतिहास भारत के सर्वनाश का इतिहास है। वह हिस्ट्री ऑफ इंडिया नहीं है, वह क्राइम हिस्ट्री ऑफ इंडिया है। सल्तनत या मुगलकाल जैसे कोई कालखंड रहे ही नहीं हैं। वह वामपंथी इतिहासकारों के दिमाग की उपज हैं। न ही दिल्ली कोई राजधानी रही है।

आप असल विवरण पढ़ेंगे तो पाएंगे कि दिल्ली को तुर्कों से लेकर मुगलों तक एक के बाद दूसरे जिहादी जत्थों ने लूटमार और कत्लेआम का एक अड्डा बना दिया था, जहां से वे पूरे भारत को रौंदते भी रहे और आपस में भी कटते-मरते रहे।

भारत को अंतहीन फसाद में धकेलने के गुनहगार हैं वे, सन् 1947 में जिसका अंत देश के टुकड़ों में हुआ और एक बार फिर करोड़ों हिंदुओं को ही इसकी कीमत चुकानी पड़ी।

सिंध पर अरबों या दिल्ली पर तुर्कों के कब्जे के बाद उस भीषण दौर में दो घटनाएं एक साथ घटी हैं। एक, मंदिरों और स्तूपों को हर कहीं लूटकर बरबाद किया गया और उनकी जगह उन्हीं के मलबे से मस्जिदों जैसे ढांचे खड़े किए गए या उन्हें यूं ही खंडहर हालत में छोड़ दिया गया।

दूसरा, स्थानीय आबादी का धर्मांतरण, जो लालच या बलपूर्वक हर संभव उपाय से हर कहीं किया गया। हारने पर अपनी जान बचाने के लिए इस्लाम कुबूल करना सजा का ही एक विकल्प था। वह सजा उन्हें जीते-जी स्वयं भोगनी थी और फिर पीढ़ियों को भी।

15 अगस्त 1947 को सारी गुलामियां माफ हो चुकी हैं, लेकिन सेक्युलर सरकारों ने वोट बैंक का बाड़ा बनाकर अल्पसंख्यक का तख्ता ऊपर टांग दिया। अक्ल को जागने का अवसर ही नहीं मिला।

जो लोग इस वहम में हैं कि उन्होंने हिंदुस्तान पर आठ सौ साल हुकूमत की, ऐतिहासिक दस्तावेजों की रोशनी में उन्हें जानना चाहिए कि इतिहास का इससे बड़ा झूठ और कुछ नहीं है। हुकूमत आज के भारतीय मुसलमानों ने कभी नहीं की।

सच्ची बात यह है कि जिन्होंने हुकूमत की, उन्होंने छल और बल से बहुत अपमानजनक परिस्थितियों में उनके शांतिप्रिय सम्मानित हिंदू, जैन अौर बौद्ध पुरखों से उनके धर्म और उनकी मूल पहचानें छीन ली थीं।

इसके अनगिनत विवरण मौजूद हैं। आज अगर वे अपनी बल्दियत उन हमलावर-लुटेरों से जोड़ते हैं तो यह ऐसा ही है जैसे कोई खुद को गाली देकर खुद ही खुश होता रहे।

मजहब के नाम पर मुल्क के आधे-अधूरे बटवारे के बाद बटे हुए भारत की त्रासदी यह है कि कांग्रेस ने असल इतिहास पर पूरी तरह न सिर्फ परदा डालकर रखा बल्कि नकली कौमी एकता के लिए झूठ आख्यान गढ़े। मध्यकाल के भयावह दमन की दास्तानें छिपाईं और बेशर्मी से वह गंगा-जमनी संस्कृति के आविष्कार में लग गई।

समकालीन दस्तावेजों के 25 साल के अध्ययन के आधार पर मेरा मानना है कि हिंदुओं से ज्यादा यह मध्यकाल मुसलमानों के लिए बेहद त्रासद रहा है, क्याेंकि उनका तो सब कुछ छीन लिया गया। उनसे उनके पुरखों की पहचानें छीन ली गईं। उनकी याददाश्त पर परदा अलग से डाल दिया गया।

अगर आप दिल्ली समेत पूरे देश में सजे रहे सिर्फ गुलामों के बाजारों की सैर कर लेंगे तो नींद हराम हो जाएगी। काफिरों के साथ जंग में लगातार लूटी गई औरतों और बच्चियों के नजदीक, धर्मांतरण का व्याकरण बेहद तकलीफदेह और अपमानजनक है।

उन हजारों-हजार बेबस औरतों के बच्चे और उनके बच्चों के बच्चे आज की आबादी के फैलाव में किन शक्लों में पहचानें जाएं? उन्हें किस बात पर गर्व होना चाहिए, किस बात पर शर्म, आबादी के एक बड़े हिस्से में यह विवेक भी घातक सेक्युलरिज्म ने पैदा नहीं होने दिया।

बाबरी या ज्ञानवापी या कृष्ण जन्मभूमि का दूसरा पक्ष ऐसा ही एक विवेकहीन पक्ष है, जिसे अपनी असल जड़ों का ही पता नहीं है। उसे यह अहसास तक नहीं है कि वह किस पापपूर्ण विरासत को ढो रहा है?

टीवी डिबेट में सिर पर टोपियां टिकाकर और दाढ़ियां लटकाकर बैठे विद्वानों और हैदराबादी जोकरों की बेसिरपैर की दलीलें सिर्फ सिर पीटने के लिए हैं। उन पर हंसा भी नहीं जा सकता। उनकी खिल्ली उड़ाना अतीत में अपमानित अपने पुरखों की आत्मा को कष्ट पहुंचाना ही है।

वे मजबूर पुरखे जिन्होंने एक बेरहम ताकत के सामने अपनी आंखों से अपने देवस्थलों को तबाह होते देखा होगा और एक दिन अपनी पहचान भी खोकर जलालत में मरे होंगे।

ज्ञानवापी से लेकर बीजामंडल और भोजशाला तक मंदिरों के स्पष्ट साक्ष्य तो जमीन पर मौजूद हैं। भूल-भटककर शातिर हो चुकी याददाश्त के उत्खनन या सर्वे का उपाय कोई अदालत और बता दे तो मसला हमेशा के लिए निपट जाए!

 

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