पुष्पेंद्र वैद्य (वरिष्ठ पत्रकार की फेसबुक वॉल से साभार)
कोंडागांव से नारायणपुर होते हुए अबूझमाड की तरफ गाड़ी सरपट तेजी से दौड रही थी। गाड़ी की रफ्तार के साथ जैसे मन और मस्तिष्क भी उतना ही चौकन्ना था। कभी लेफ्ट तो कभी राईट। कोई भी नजारा निगाहों से ओझल नहीं करने का मन कर रहा था। साल और सागौन के इस जंगल में बम, बंदूक, बारूद की गंध भी मानो घुली हुई सी थी। पतझ़ड के बीच कुछ हरे भरे पेडों की सरसराहट और पंछियों के कलरव के साथ अजीब सा सन्नाटा होनी या अनहोनी के बीच का अहसास करा रहा था। मन को लुभाने वाले इन जंगलों का बीते 40 बरस से गोलियों और बारुद की गंध में दम घुट रहा है। गाड़ी सरपट दौड रही थी मगर मन में कई तरह के सवालों की उधेडबुन समुद्री लहरों की तरह आ-जा रही थी।
गाड़ी के ब्रेक लगते ही देखा डांगरी लगाए बहुत सारे जवान सडक के किनारे बंकर बनाए पोजिशन लिए तैनात खड़े थे। गाडियों की चैकिंग की जा रही थी। डिक्की धडाम से बंद हुई और गाड़ी ने फिर रफ्तार पकडी….थोड़े ही चले थे कि सड़क के दोनों किनारे एके 47 लिए आईटीबीपी (इंडो तिब्बत बॉर्डर फोर्स) के जवान बेहद सतर्कता के साथ गश्त कर रहे थे। आम लोगो के लिए हैरानी होगी कि जंगल के बीच सड़क के दोनों किनारों पर इतना सारा फोर्स क्या तलाश रहा है। कोर नक्सल इलाके में इस तरह की गश्त रोड ओपनिंग पुलिसिंग कहलाती है जिसे आरओपी कहा जाता है। यही गश्त नक्सलियों के लिए सबसे बडी दुश्मन होती है। डेप्थ सर्चिंग मेटल डिटेक्टर, एके 47 राइफल, बुलेटप्रुफ जैकेट और वायरलेस सैट से तैयार फुलप्रुफ फोर्स सड़क के दोनों किनारों पर 100 मीटर के दायरे में इस बात की तस्दीक कर रही थी कि कहीं लैंड माइन या अंडर ग्राउंड कोई बम या विस्फोटक तो छुपाया हुआ नहीं है। दरअसल सड़क का रास्ता सुरक्षित बनाने के लिए आरओपी तैनात की जाती है। नक्सलियों ने अब तक ज्यादातर हमले इन्ही रोड ओपनिंग पार्टी को एंबुश में फँसा कर किए हैं।
हमने जैसे ही गाड़ी किनारे लगाई तो पूरा फोर्स हाई अलर्ट हो गया। हमने बताया हम मीडिया से हैं। इनके कमांडर ने हमें उनके साथ चलने के कुछ एहतियातन तरीके बताए और फिर हमने एक-एक कर उनसे तमाम मुद्दों पर बात की….सच जिन हालातों में फोर्स यहां काम कर रही है, उसे सुनकर आपके रौंगटे खडे हो जाएँगे। हर पल जान का खतरा मगर देश भक्ति का जुनून उन सब हालातों पर भारी….
नारायणपुर होते हुए अबूझमाड की तरफ हमारी गाड़ी का स्टेयरिंग मुड़ चुका था। जगह-जगह सुरक्षा एजेंसियों के कैंप लगे हुए हैं…कंटीले तारों और बंकरों के बीच ऊँचे-पूरे गठीले बदन वाले हथियारों और डांगरी में कसे तंदुरुस्त जवान हर पल किसी भी हालात से निपटने के लिए तैयार दिखाई दे रहे थे….अधनंगे बदन पर लोहे के धारदार औजार और नंगे पैरों से सायकिल के पैडल मारते आदिवासी पास के गाँवों या कस्बों तक जा रहे हैं……गोल-खपरैल और कच्ची भीत के दो-चार झोपडों वाले कई गांव फिल्म की रील की तरह भाग रहे थे…..बडी सड़क से छोटी सड़क और छोटी से कच्ची सड़कों पर हम गुजरते जा रहे थे। कच्ची सड़के खून या लाल सलाम से रंगी हुई नहीं थी बल्कि यहां कि मिट्टी ही लाल है…..शायद इस मिट्टी ने भी यहाँ की आबोहवा में रहकर अपना रंग बदल लिया है….अबूझमाड पहुँचने से पहले आखरी बैरियर पर हमे हिदायत दी गई कि आगे जाना खतरे से खाली नहीं है….लैंड माइन बिछी हो सकती है….आप किसी एंबुश में फँस सकते हैं।
लेकिन हम अबूझमाड जाना चाहते हैं….आखिर इसे छत्तीसगढ की अबूझ पहेली क्यों कहा जाता है…क्या वाकई लोग यहाँ आदिमयुग की तरह अब भी पत्ते लपेट कर रहते हैं….क्या इक्कीसवी सदी में भी ये इलाका दुनिया से कटा हुआ है…..आखिर इस जगह को नक्सलियों ने क्यों अपना गढ़ बना रखा है…..क्या वाकई सरकार के मुलाजिम भी अब तक यहाँ नहीं पहुँच सके हैं……क्या नजूल के नक्शे पर नहीं है अबूझमाड…..यह सब हमारे दिमाग की अबूझ पहेली ही थी।स्थानीय साथी एक-एक जगह के बारे में हमे बता रहे थे। यहां बहुत बडा ब्लास्ट हुआ था। यहाँ इतने जवान शहीद हुए थे, यहाँ इतने घंटे मुठभेड हुई थी, यही तो वह जगह है जहाँ सडक बनाने वाले ठेकेदार को मार गिराया था। दादा लोगो का ठिकाना इन्हीं जंगलों में है। दादा यानी नक्सली। तो फिर क्या हमें भी दादा लोग मिल सकते हैं…हां बिलकुल क्यों नहीं…..जवाब मिला। उनका असली दुश्मन पुलिस और सरकार के लोग हैं। मीडियाकर्मी अकेले उन्हें मिल भी जाएँ तो उनसे दादा लोग बात करते हैं, हां ! बशर्ते उन्हें पुलिस से मिले होने का शक नहीं हो।
हम अबुझमाड में दाखिल हो चुके थे। यहां के जंगलों को देखकर ऐसा लग रहा था मानों ऊँचे-ऊँचे साल के पेड़ भी हमें यहाँ देखकर हैरानी जता रहे हों। दूर-दूर तक पत्तों की सरसराहट के अलावा कोई आवाज़ कानों पर नहीं थी।यहां के लोग दादा लोगों के अलावा कम ही लोगों को जानते हैं। दादा लोग इन्ही के बीच रहते हैं। कुछ लोग हमे देख कर भाग रहे थे। उन्हें शक हुआ होगा, आखिर अनजान लोग इस बियाबान जंगल में किसे तलाश रहे हैं। सीमेंट, कंक्रीट, प्लास्टिक, पॉलिथीन मोबाइल फोन और झूठी शान से कोसों दूर यहां धड़कने वाली जिंदगियों की अपनी ये दुनिया वाकई पूरी दुनिया से बेहद अलग है। किसी तरह कुछ लोगों से बात करने की कोशिश की। हमारे साथ गए स्थानीय साथी इनकी भाषा को समझते थे। चुनाव और वोटों की राजनीति से इनका कोई वास्ता नहीं। जंगल ही उनकी सबसे बडी दुनिया है। यहाँ के लोग अब मोगली बन इन्हीं जंगलों से गहरा नाता जोड चुके हैं शायद सात जन्मों का। शहरी सवालों का जवाब इन आदिवासियों से मिला वो हैरान और यथार्थ साबित करने वाला था। इनसे जब यहाँ की परेशानियों के बारे में पूछा तो हँसते हुए जवाब मिला यहाँ सबकुछ है साहब। कोई परेशानी नहीं। जितना आक्रोशित चेहरा नक्सलियों का है उससे उलट यहाँ के लोगों की मासूमियत है। सच अगर मेजबानी की रस्म सीखना है तो शायद अबुझमाड से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती है। लौटते वक्त झोपडे के बाहर एक महिला चिंटियों की चटनी और भात बना रही थी। दावत का न्यौता दिया मगर हमने आभार जताया और वहाँ से लौटने लगे। देखने में यहाँ हमे अभाव ही अभाव नजर आता है मगर यहाँ के लोगों के लिए सबकुछ यहीं है। कुछ लोग हमारे सामने ही हमारे बारे में खबरे दादा लोगों तक पहुँचा रहे थे। यहां तक कि हमारी गाडी का नंबर भी पहुँचाया जा रहा था लेकिन हमारे साथी आश्वस्त थे। मुलाकात होने पर भी दादा लोग हमें नुकसान नहीं पहुँचाएगें। खैर, अब हम लौट रहे थे…गाडी का चक्का घूम रहा था मगर अब सवालों के साथ जवाब भी मिलने लगे थे….लौटते-लौटते पता चला नक्सलियों ने विधायक समेत पांच लोगों को आईईडी ब्लास्ट से उडा दिया…..
You may also like
-
एसटी एससी क्रीमीलेयर के बिना इंसाफ नामुमकिन
-
13 साल वाली बच्ची को संन्यास दिलाने वाले महंत कौशल गिरि 7 साल के लिए निष्कासित
-
मंत्री गुट के करीबी पार्षद जीतू यादव का इस्तीफा,पार्टी से भी निष्कासित
-
प्रेसनोट से शुरू बदनामी की बेगुनाही के बाद भरपाई?
-
प्रधानमंत्री ने स्वीकारा… मैं भगवान नहीं मुझसे भी गलतियां हुईं