ऐसी संसद गढऩे वाला देश, ऐसे ही कानूनों का हकदार
सुनील कुमार(संपादक डेली छत्तीसगढ़) .
लोकसभा में बीती रात नागरिकता संशोधन विधेयक भारी बहुमत से पास हो गया, और एनडीए के बाहर की कुछ ऐसी पार्टियों ने भी इस विधेयक का साथ दिया जो कि अभी हाल तक एनडीए के खिलाफ चुनाव लड़ चुकी थी। बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियों की यह सोच रहती है कि राष्ट्रीय मुद्दों पर उन्हें केन्द्र सरकार के साथ रहना चाहिए। भाजपा से असहमत रहते हुए भी शिवसेना ने कल ऐसी ही बात कही, और बीजू जनता दल ने विधेयक का साथ दिया। विधेयक का विरोध बहुत कमजोर रहा क्योंकि एनडीए के बाहर सांसदों की गिनती ही लोकसभा में बहुत कम है। संसद में बहस के दौरान कल अनगिनत बार यह कहा गया कि यह संशोधन देश के भीतर मुस्लिमों से भेदभाव करने वाला है, यह धर्म के आधार पर भारतीयों के बीच, या लोगों के बीच फर्क करने वाला है, और इसलिए भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे के ही खिलाफ है। एक टीवी चैनल ने देश के ऐसे नौ संविधान विशेषज्ञों से इस संशोधन पर बात की जो कि किसी पार्टी से लगाव-जुड़ाव नहीं रखते। ऐसे नौ तटस्थ संविधानवेत्ताओं में से सात ने कहा कि यह संशोधन संविधान के खिलाफ है। बहुत से लोगों ने यह विधेयक पेश करने वाले गृहमंत्री अमित शाह के अभूतपूर्व आक्रामक भाषण को ऐतिहासिक तथ्यों के खिलाफ बताया, और लालकृष्ण अडवानी के एक सबसे करीबी रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी ने शाह के भाषण को एक काले कानून के लिए सफेद झूठ का पुलिंदा लिखा। इस भाषण में ऐतिहासिक तथ्यों को गलत कहने की बात कल भाषण के चलते हुए ही बहुत से लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखी। कुछ लोगों ने यह बात भी उठाई कि अगर पड़ोस के देशों में धार्मिक भेदभाव के आधार पर प्रताडऩा पाने वाले लोगों को भारतीय नागरिकता देने की ही नीयत है, तो इसमें तमाम गैरमुस्लिम धर्मों का जिक्र करने, और मुस्लिमों को बाहर रखने की जरूरत नहीं थी क्योंकि सरकार तो वैसे भी हर अर्जी पर अलग-अलग फैसला लेगी ही, और उस वक्त वह तय कर सकती थी कि पड़ोसी देशों में कहां कौन प्रताडि़त है, और कौन नहीं। अमित शाह के भाषण के इस मतलब को भी लोगों ने खतरनाक बतलाया कि पाकिस्तान में मुस्लिमों की प्रताडऩा नहीं हो रही है। इस्लाम के भीतर के कई ऐसे सम्प्रदाय हैं जो लंबे समय से पाकिस्तान में प्रताडऩा और हत्याओं की शिकायत करते आ रहे हैं, भारतीय गृहमंत्री के संसद के ऐसे बयान से पाकिस्तान को एक क्लीनचिट मिलने की बात भी लोगों ने कही है।
कई विश्लेषकों ने यह भी कहा है कि इस नागरिकता संशोधन विधेयक को जब भारत में इन दिनों लगातार खबरों में बने हुए एनआरसी, नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस के साथ मिलाकर देखें तो केन्द्र सरकार की यह साफ नीयत समझ में आती है कि वह एनआरसी में असम में बाहर रह गए दस-बीस लाख हिन्दुओं को नागरिकता देने के लिए भी यह संशोधन ला रही है जिससे कि हिन्दू तो भारतीय नागरिक हो जाएं, लेकिन जो लाखों मुस्लिम असम में आज गैरनागरिक करार देकर कैम्पों में रखे गए हैं, वे नागरिकता न पा सकें। इन दो कानूनों को मिलाकर देखने से ही केन्द्र सरकार की नीयत, और देश की नियति साफ हो सकती है। सम्प्रदायिकता-विरोधी एक प्रमुख लेखक सुभाष दाताड़े ने आज सुबह ही इस पर लिखा है कि नागरिकों की शुद्धता की कवायदें, और अंधराष्ट्रवाद वह खाद-पानी है जिस पर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी विचार मजबूती पाता है।
अब जब बहुत से लोगों का यह मानना है कि लोकसभा में बहुमत के बाहुबल से पास किया गया यह विधेयक राज्यसभा में पास हो भी जाता है, तो भी इसे सुप्रीम कोर्ट में बड़ी चुनौती मिलना तय है, और लोगों का यह भी मानना है कि सुप्रीम कोर्ट की आंच को यह झेल नहीं पाएगा। जजों की अपनी एक राजनीतिक सोच होती है, और उनसे यह उम्मीद करना फिजूल का आदर्शवाद ही होगा कि वे संविधान के इस जटिल पहलू की व्याख्या करते हुए अपनी सोच से पूरी तरह मुक्त रहेंगे। आज सुप्रीम कोर्ट ने पहले कश्मीर-प्रतिबंधों को लेकर, और फिर अयोध्या के मुद्दे पर जिस तरह के फैसले दिए हैं, या जिस तरह फैसले नहीं दिए हैं, उनसे भी भारतीय न्यायपालिका की एक ताजा सोच उजागर होती है। बड़े से बड़े लोकतंत्र में भी जजों को अपनी सोच का रखना सत्ता की एक बहुत ही दबी-छुपी कोशिश होती है, और अमरीका जैसे लोकतंत्र में तो यह दबी-छुपी भी नहीं होती है, वहां अपनी विचारधारा के जज बनाने की खुली घोषणा होती है। अब इस नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर देश के प्रमुख संविधानवेत्ताओं की सोच और सुप्रीम कोर्ट के जजों की सोच में बड़ा फर्क भी हो सकता है, और हो सकता है कि जजों की सबसे बड़ी बेंच का बहुमत सरकार के साथ जाए। ऐसे में देश के लोगों को इस देश की महान परंपराओं, और समानता के संविधान के खिलाफ चल रहे इस सिलसिले पर यही मानना होगा कि जब किसी पार्टी या गठबंधन को इतना बड़ा बहुमत दिया जाता है, और धार्मिक आधार पर बहुसंख्यक वाद के आधार पर दिया जाता है, तो उस देश के फैसले, और संविधान के संशोधन भी बहुसंख्यक तबके और अल्पसंख्यक तबके में भेदभाव करते हुए ही हो सकते हैं। खासकर उस हालत में जब बहुसंख्यक वर्ग को एकजुट रखने के लिए उस वर्ग का नायक अल्पसंख्यक वर्ग को एक खलनायक की तरह, एक खतरे की तरह पेश करने में कामयाबी पा चुका है। किसी भी देश के नागरिक वैसा ही वर्तमान और वैसा ही भविष्य पाते हैं जिसके कि वे हकदार होते हैं, या कि जैसा कि आज भारत का बहुसंख्यक तबका तय कर रहा है, संसद के भीतर नहीं, संसद के चुनाव में। दुनिया के इतिहास में किसी देश की महानता इससे साबित होती है कि वह अपने से बेहतर किस देश की मिसाल से कुछ सीखती है, हिन्दुस्तान एक दिन पाकिस्तान की मिसाल से कुछ सीखेगा, क्या यह दुनिया के सबसे ऊंचे बुत में बसाए गए सरदार पटेल ने भी कभी सोचा होगा? आज लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि दुनिया में स्टेच्यू ऑफ यूनिटी नाम की बनाई गई सबसे बड़ी प्रतिमा के साये में देश की यूनिटी को इस तरह खत्म करके हिन्दुस्तान क्या एक महान देश बन सकेगा, या बने रह सकेगा?
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