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सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक ऐतिहासिक मामले में फैसला दिया है। फैसला ऐतिहासिक नहीं है, क्योंकि इस मामले में इंसाफ की बात तो यही हो सकती थी। यह एक अलग बात है कि 1998 में सुप्रीम कोर्ट की ही एक पांच जजों की संविधानपीठ ने जो फैसला दिया था, उसे अब सात जजों की बेंच ने पलट दिया है।
सर्वसम्मत इस फैसले में कहा गया है कि संसद या विधानसभा में वोट के बदले नोट लेने वाले सांसदों या विधायकों को कोई कानूनी संरक्षण नहीं मिल सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान के संबंधित अनुच्छेदों में रिश्वतखोरी को छूट नहीं दी गई है। क्योंकि रिश्वत लेने वाले निर्वाचित सदस्य एक जुर्म में शामिल रहते हैं जो कि वोट देने या सदन में भाषण देने के लिए जरूरी नहीं है।
अदालत ने फैसले में कहा कि अपराध उस समय पूरा हो जाता है जब सांसद या विधायक रिश्वत लेते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सांसदों और विधायकों द्वारा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी से भारतीय संसदीय लोकतंत्र नष्ट हो जाता है।
रिश्वत वाले सांसदों को मिली थी आज़ादी
मालूम हो कि देश में अलग-अलग समय कई ऐसे सांसदों और विधायकों के मामले रहे जिसमें निर्वाचित नेताओं पर सदन में वोट या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के आरोप लगे, लेकिन 30 बरस पहले का ऐसा एक मामला 1998 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अब तक मुकदमे से बचा हुआ था। पांच जजों की बेंच ने 1998 में पी.व्ही.नरसिंहराव पर लगे आरोपों का मामला चलाने लायक नहीं करार दिया था।
अब इस फैसले के खिलाफ पिछले कई महीनों से सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई पूरी करके आदेश सुरक्षित रखा था। पांच महीने बाद आज यह फैसला सुनाया है। हम बहुत तकनीकी बारीकियों का जिक्र किए बिना यह याद करना चाहते हैं कि किस तरह 2005 में कोबरा पोस्ट नाम के एक स्टिंग ऑपरेशन डिजिटल मीडिया ने 11 सांसदों को संसद में सवाल पूछने के लिए रिश्वत दी थी, और खुफिया कैमरों से पूरी रिकॉर्डिंग की थी।
लेकिन 1998 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से ये लोग मुकदमे से बच गए थे, और इन 11 सांसदों में 6 भाजपा के थे, 3 बसपा के, और 1-1 सांसद आरजेडी और कांग्रेस के थे। इनमें छत्तीसगढ़ से बीजेपी के सांसद प्रदीप गांधी भी थे। लोकसभा में अपने 10 सदस्यों के, और राज्यसभा अपने एक सदस्य को निष्कासित कर दिया था।
संसद में अपने इन सदस्यों पर कोई मुकदमा नहीं चलने दिया था, और इसे सदन के भीतर के विशेषाधिकार का मामला माना था। इस निष्कासन के खिलाफ भी उस वक्त भाजपा के एल.के.अडवानी ने सदन से भाजपा सांसदों के साथ बहिष्कार करते हुए कहा था कि यह भ्रष्टाचार से अधिक बेवकूफी का काम था, और सांसदों का निष्कासन जरूरत से अधिक कड़ी सजा है।
ऐसे और भी मामले हुए हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का 1998 का फैसला भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए लोगों के बचने के काम आते रहा। अब मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ की अगुवाई में अदालत की सात जजों की संविधानपीठ ने सुप्रीम कोर्ट की ही पिछली पांच जजों की बेंच के 3:2 के बहुमत से दिए गए फैसले को पलट दिया है।
लोगों को याद होगा कि 1993 में नरसिंहराव की केन्द्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार का साथ देने के लिए शिबू सोरेन और उनके चार सांसदों पर आरोप लगे कि उन्होंने रिश्वत लेकर लोकसभा में वोट दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कानूनी कार्रवाई से छूट देते हुए इस मामले को ही रद्द कर दिया था। ऐसे ही शिबू सोरेन की बहू पर भी यह आरोप लगा था कि उन्होंने वोट देने के लिए रिश्वत ली थी। वह मामला भी 1998 के फैसले के हवाले से छूट गया था।
सांसदों की बर्खास्तगी के वक्त से हम लगातार इस बात को लिखते आए हैं कि संसद या विधानसभा के भीतर के ऐसे रिश्वतखोरी के मामलों को वहीं दफन नहीं किया जा सकता, और ऐसे जुर्म के खिलाफ अगर देश का लोकतांत्रिक कानून अगर कोई छूट दे रहा है, तो वह छूट गलत है।
किसी के सांसद या विधायक हो जाने से उनको जुर्म करने का हक नहीं मिल सकता। लेकिन 1998 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से ऐसे तमाम मुजरिम अब तक बचे आ रहे थे, और अब ऐसा लगता है कि देश में दर्जन भर से अधिक सांसद-विधायकों पर आपराधिक मुकदमे चलने का समय आ गया है।
यह बात लोकतंत्र और न्याय की बुनियादी समझ के खिलाफ थी कि किसी के निर्वाचित जनप्रतिनिधि होने से उन्हें वैसे जुर्म करने का हक मिल जाए, जैसे जुर्म करने पर आम जनता को बरसों की कैद होती है।
यह बात ऐसी संसदीय व्यवस्था को शर्मनाक करार दे रही थी, और संसद खुद तो अपने आपको नहीं सुधार पाई, वह अपने मुजरिमों को बचाने में ही लगी रही, अब सुप्रीम कोर्ट की दखल से भारतीय संसद की खोई हुई इज्जत लौटने का आसार दिख रहा है।
सच तो यह है कि जो सांसद देश के सबसे महत्वपूर्ण कानून बनाते हैं, वे अपने-आपके मुजरिम रहने पर भी अपने को बचाने के लिए संसद के विशेषाधिकारों का उपयोग कर रहे थे, जो कि शर्मनाक था।
सांसदों और विधायकों को आम जनता के सामने एक मिसाल पेश करनी चाहिए, लेकिन हालत यह है कि दो हजार रूपए रिश्वत लेने पर पटवारी को तो कैद हो जाती है, लेकिन लाखों-करोड़ों रिश्वत लेकर संसद और विधानसभा में वोट देने पर कुछ नहीं होता, और ऐसे भ्रष्ट-मुजरिम विशेषाधिकार की हिफाजत पाते रहते हैं। यह फैसला भारतीय राजनीति के एक बड़े ही गंदे पहलू को साफ करने वाला साबित हो सकता है।
यह एक अलग बात है कि संसद में तमाम पार्टियां मिलकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलटने के लिए संविधान संशोधन भी कर सकती हैं क्योंकि हर पार्टी में ऐसे मुजरिम मौजूद हैं। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह फैसला आते ही आज इसका स्वागत किया है। देखना है कि आने वाले महीनों में, आम चुनाव के बाद बनने वाली सरकार इस पर क्या करती हैं।
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