बिलकिस बानो केस – दोषियों की आज़ादी, सत्ता की मनमानी और अदालत की सख्ती

Share Politics Wala News

अदालत ने सरकार को कहा कि इस रिहाई के वक्त सरकार ने कौन से तथ्य और तर्क इस्तेमाल किए हैं, और दिमाग का इस्तेमाल किया है या नहीं, इसे अदालत देखना चाहती है।

सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

गुजरात के कुख्यात बिलकिस बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कल केन्द्र सरकार के साथ जो रूख दिखाया है, वह लोकतंत्र की मजबूती का एक सुबूत है। जब सरकार अपने किए पर इस हद तक अड़ जाए कि उसके अमानवीय, अनैतिक, और अलोकतांत्रिक फैसले भी अदालती नजरों से परे के हैं, और सरकार अदालत को यह नहीं बताएगी कि बलात्कार और 14 लोगों के कत्ल के मुजरिमों को सरकार ने किस आधार पर जेल से छोडऩा तय किया, तो वैसी हालत में अदालत में रीढ़ की हड्डी की जरूरत लगती है, और कल दो जजों की बेंच ने केन्द्र सरकार के साथ ठीक वही किया है।

2002 के गुजरात दंगों के दौरान एक गर्भवती मुस्लिम महिला से बलात्कार और परिवार के 14 लोगों के कत्ल के मुजरिमों को गुजरात सरकार ने कुछ महीने पहले रिहाई के लायक मानकर छोड़ दिया, और उसके बाद उनका जमकर स्वागत चल रहा है।

जब यह मामला नीचे की अदालतों से निराश होकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो जजों ने सरकार से कहा कि वे फाईलें पेश की जाएं जो कि समय के पहले इन कैदियों को रिहा करने की बुनियाद थीं। अदालत ने इस बात पर भी टिप्पणी की कि इतना भयानक जुर्म होते हुए भी कुछ मुजरिमों को सजा के दौरान ही लंबे-लंबे पैरोल दिए गए।

जजों ने सरकार को याद दिलाया कि यह कत्ल का आम मामला नहीं था जिसमें कि किसी कैदी को आचरण अच्छा होने से सजा पूरी होने के कुछ पहले रिहा कर दिया जाए। अदालत ने याद दिलाया कि यह एक गर्भवती महिला के साथ सामूहिक बलात्कार और उसके परिवार के 14 लोगों के कत्ल का मामला था जिसे आम जुर्म नहीं माना जा सकता।

ऐसे में सरकार ने क्या सोचकर, फाईलों पर क्या लिखकर इन्हें रिहा किया है, वह तो अदालत देखना चाहेगी। जजों ने केन्द्र सरकार के वकील को चेतावनी भी दी कि उसे यह भी समझना चाहिए कि ऐसी रिहाई से वह देश को क्या संदेश देना चाहती है। अदालत ने सरकार को कहा कि इस रिहाई के वक्त सरकार ने कौन से तथ्य और तर्क इस्तेमाल किए हैं, और दिमाग का इस्तेमाल किया है या नहीं, इसे अदालत देखना चाहती है।

इस मामले में 11 लोगों को उम्रकैद मिली थी, और सारे के सारे लोगों को अच्छा आचरण बताकर समय के पहले रिहा किया गया, जबकि उनके खिलाफ पैरोल पर बाहर आने पर शिकायतकर्ताओं को धमकाने की शिकायतें होती रही हैं। उसके बाद भी गुजरात सरकार और केन्द्र सरकार ने यह रिहाई की। जजों ने सरकार से यह सवाल भी पूछा कि ऐसे जुर्म को देखते हुए इन लोगों को 11 सौ दिनों से अधिक की पैरोल दी गई, जो कि तीन साल से अधिक की होती है, क्या आम कैदी को ऐसी पैरोल मिलती है?

हम यहां पर अदालत की कही एक बात को आगे बढ़ाना चाहते हैं। जस्टिस के.एम.जोसेफ और जस्टिस बी.वी.नागरत्ना ने कहा कि ऐसी रिहाई करके सरकार बाकी देश को क्या संदेश देना चाहती है? जजों ने यह एकदम मुद्दों की बात पकड़ी है, और यह रिहाई इन 11 बलात्कारी-हत्यारों की ही नहीं थी, यह रिहाई इससे कहीं अधिक पूरे देश को यह बताने को थी कि गुजरात सरकार के साथ-साथ केन्द्र सरकार का भी लोगों के लिए क्या रूख है, जातियों के लिए, धर्मों के लिए, किसी एक धर्म के लोगों के खिलाफ धार्मिक आधार पर किए गए जुर्म को लेकर इन सरकारों का क्या रूख है?

गुजरात के 2002 के दंगे सिर्फ गुजरात के लिए नहीं थे, उनका संदेश पूरे देश के लिए था, और वह संदेश गया भी, उसमें वक्त लगा, लेकिन देश की तमाम जनता ने उसके मतलब अपनी-अपनी तरह से, अपने-अपने लिए निकाल लिए थे। अब पहले गुजरात सरकार ने रिहाई का यह फैसला लिया, और फिर केन्द्र सरकार ने उसे मंजूर किया, और अब केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट से यह कह रही है कि वह रिहाई की फाईलें दिखाना नहीं चाहती, तो यह सब भी एक संदेश है। इस चिट्ठी को चारों तरफ पहुंचने में ये जज आड़े आ रहे हैं क्योंकि वे इस देश में न्यायपालिका की जिम्मेदारी को समझ रहे हैं, और उसे पूरी करने पर उतारू हैं।

सरकारें चाहे वे किसी प्रदेश की हों, या देश की हों, उनमें अपने पहले की सरकार से और अधिक दुष्ट और भ्रष्ट होने का एक मिजाज बन ही जाता है, और वे उसी लाईन पर आगे बढ़ती रहती हैं। ऐसे में अगर अदालतों के जज अपने वृद्धावस्था पुनर्वास की संभावना पर लार टपकाते बैठे रहते हैं, तो वह मिजाज भी उनके फैसलों में साफ-साफ दिखने लगता है।

किसी देश-प्रदेश में जब राज्य ही अराजक हो जाए, सरकारें मनमानी करने लगें, और वे जजों को तरह-तरह से प्रभावित करने पर आमादा भी रहें, तो वह नौबत भी आम लोगों को अब दिखने लगी है। इसलिए हम सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से पहले भी उसके रूख को बारीकी से देखते हैं क्योंकि अगर आम जनता के बीच दूसरे लोकतांत्रिक तबके कोई जनमत नहीं बना पा रहे हैं, तो भी सुप्रीम कोर्ट के ऐसे रूख से जनमत को एक दिशा मिलती है। आने वाले दिनों में इस मामले में केन्द्र सरकार और क्या आना-कानी करती है, वह देखने लायक होगा, और अगर उसे लगता है कि अदालत की अवमानना करना भारी पड़ेगा, और वह फाईलें पेश करती है, तो वे फाईलें और अधिक देखने लायक होंगी।