बिहार में जो हार होते दिख रही है, और अमरीका में जो हार हुई है, दोनों के पीछे महत्वोन्मादी आत्ममुग्धता जिम्मेदार दिख रही है, इन दोनों के पीछे सार्वजनिक जीवन की सद्भावना के प्रति भारी हिकारत दिख रही है, इन दोनों के पीछे वोटरों को बंधुआ समझकर मनमानी करने की बददिमागी दिख रही है।
सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )
अमरीका का राष्ट्रपति चुनाव वैसे तो हर बार ही दुनिया की सबसे बड़ी चुनावी-खबरें गढ़ता है क्योंकि बाकी दुनिया की जिंदगी में अमरीका का जितना अहम किरदार है, उतना किसी और देश का नहीं। फिर हकीकत हो, या फसाना, यह माना जाता है कि अमरीकी राष्ट्रपति दुनिया का सबसे ताकतवर इंसान होता है।
इसलिए इस बार जब इस कुर्सी पर काबिज मौजूदा इंसान अपने तमाम बावलेपन, अपनी बदचलनी, अपनी बदमिजाजी, अपनी बदतमीजी, अपने झूठ, और अपने घटियापन के बावजूद चुनाव मैदान में था, तो लोगों की धडक़नें बढ़ी हुई तो थीं ही। पिछली बार भी डोनल्ड ट्रंप ने पहली नजर में अपने मुकाबले अधिक समझदार दिखने वाली हिलेरी क्लिंटन को हरा ही दिया था, और इस बार भी अगर अमरीकी वोटरों का एक हिस्सा फिर वैसी ही चूक कर बैठता, तो किया ही क्या जा सकता था।
लेकिन बेहतर समझ काम आई, और ट्रंप का विसर्जन कर दिया गया। वैसे तो ट्रंप अब तक बावलों की तरह बकवास करते हुए अदालतों के चक्कर लगा रहा है कि जो बाइडन की हासिल की चुकी जीत में कुछ कानूनी अड़ंगा लगाया जाए, लेकिन वैसे कोई आसार अब बचे नहीं हैं।
इस चुनाव में हिन्दुस्तानियों की अधिक दिलचस्पी इसलिए थी कि जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमरीका गए, तो वहां उनके एक प्रायोजित भीड़भरे जलसे में पहुंचकर डोनल्ड ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार का काम किया था। इसके बाद कोरोना के चलते हुए भी हिन्दुस्तान के अहमदाबाद में मोदी ने डोनल्ड ट्रंप को प्रवासी भारतीय वोटरों और भारतवंशियों को लुभाने का एक और मौका दिया, और बेमौके का नमस्ते-ट्रंप करने का खतरा उठाया जिसके बाद ट्रंप को वोट चाहे जितने मिले हों, अहमदाबाद को कोरोना भरपूर मिला था।
लोगों ने कल से तंज कसते हुए मोदी का वह वीडियो पोस्ट करना शुरू कर दिया है जिसमें वे अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा लगाते दिख रहे हैं। पिछले हफ्ते भर से लगातार यह विश्लेषण भी हो रहे हैं कि ट्रंप के चुनाव में मोदी की वैसी जाहिर और घोषित मदद के बाद अब राष्ट्रपति जो बाइडन का हिन्दुस्तान के लिए, मोदी सरकार के लिए क्या रूख रहेगा? इस विषय के अधिक जानकार लोग इस पर बहुत सारा लिख रहे हैं, इसलिए हमें इस पर अपनी सीमित समझ को झोंकने की जरूरत नहीं है।
लेकिन कल शाम से रात तक की दो बातों को देखने की जरूरत है। शाम हुई और बिहार में वोटों का आखिरी दौर निपटा। इसके तुरंत बाद टीवी चैनलों ने अपने-अपने एक्जिट पोल दिखाने शुरू कर दिए। इन एक्जिट पोल्स को मिलाकर जो नतीजा निकल रहा है, वह बिहार से एनडीए के सफाए का है, और तेजस्वी यादव के सत्ता में आने का है। हालांकि देश के एक सबसे बड़े अखबार, भास्कर, का एक्जिट पोल अगर सच निकलता है, तो तेजस्वी यादव का सफाया हो रहा है, और एनडीए भारी बहुमत से बिहार की सत्ता पर लौट रही है।
लेकिन दूसरे किसी सर्वे का ऐसा कहना नहीं है, बल्कि चाणक्य नाम के एक नामी-गिरामी सर्वे ने तो एनडीए के मुकाबले तेजस्वी-गठबंधन को तीन गुना सीटें दी हैं। कुल मिलाकर कल शाम से माहौल यह बना है कि बिहार से नीतीश-भाजपा का सफाया हो रहा है, और तेजस्वी की ताजपोशी हो रही है। अब वैसे तो कोई वजह नहीं है कि बिहार के नतीजों को अमरीका के नतीजों से जोडक़र देखा जाए, लेकिन चूंकि घंटों के भीतर ही ये दोनों नतीजे आए हैं, इसलिए स्वाभाविक ही है कि इन्हें एक साथ तो देखा ही जा सकता है।
बिहार में जो हार होते दिख रही है, और अमरीका में जो हार हुई है, इन दोनों के पीछे महत्वोन्मादी आत्ममुग्धता जिम्मेदार दिख रही है, इन दोनों के पीछे सार्वजनिक जीवन की सद्भावना के प्रति भारी हिकारत दिख रही है, इन दोनों के पीछे वोटरों को बंधुआ समझकर मनमानी करने की बददिमागी दिख रही है।
किन्हीं दो मिसालों की तुलना करना बड़ा खतरनाक होता है, और उनमें कौन-कौन सी चीजें एक जैसी नहीं है, उसकी लंबी फेहरिस्त बन सकती है। लेकिन दुनिया में उदारता, सद्भावना, सज्जनता, और बेहतर मूल्यों पर भरोसा रखने वाले जो लोग बिहार और अमरीका दोनों को जानते हैं, उनके बीच ये कुछ घंटे एक बड़ी राहत के थे।
2020 का यह साल लॉकडाऊन और कोरोना से लदा हुआ चले आ रहा था, और लोग 2021 का इंतजार कर रहे थे, बहुत बेसब्री से। ऐसे में बिहार और अमरीका के लोगों के लिए कल शाम से रात के बीच के कुछ घंटे बहुत राहत लेकर आए हैं। बिहार और अमरीका इन दोनों ही जगहों पर बहुत ईमानदार चुनावी मुद्दों, जमीनी हकीकत से जुड़े मुद्दों ने चुनावी रूख तय किया, और समझदार लोगों का बहुतायत इससे बहुत राहत में हैं कि धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, विदेशी खतरा, विधर्मी दुश्मन, सरहद पर शहादत जैसे फर्जी चुनावी मुद्दों से राहत मिली।
उधर अमरीका को देखें तो डोनल्ड ट्रंप ने अपने पहले राष्ट्रपति चुनाव अभियान से ही सरहद से लगे हुए मैक्सिको के खिलाफ जिस भयानक हिंसक तरीके से एक नफरती हमला बोला था, जिस तरह वहां दीवार बनाने और उसकी लागत मैक्सिको से वसूलने की बात कही थी, वह न केवल चार बरस के कार्यकाल में फ्लॉप शो साबित हुई, बल्कि इस चुनाव में तो ट्रंप के मुंह से दीवार का नाम तक नहीं निकला। इसलिए बिहार और अमरीका इन दोनों में इस बार चुनावी मुद्दे असली रहे, और दोनों के नतीजों का रूख मतगणना से और मतदान-बाद के एक्जिट पोल से एक सरीखा दिख रहा है।
अमरीका के राजनीतिक विश्लेषकों का शुरूआती घंटों का यह मानना है कि मोदी-ट्रंप की तमाम गलबहियों, और संग-संग चुनाव प्रचार के बावजूद अमरीका के भारतवंशी वोटरों की पसंद जो बाइडन और उनकी उपराष्ट्रपति-प्रत्याशी कमला हैरिस रहे। इसके पीछे कमला का भारतवंशी होना ही वजह नहीं रही, और भारतवंशियों ने बड़ी संख्या में, बहुतायत में जो बाइडन को भी पसंद किया।
कुछ लोगों को जो बात पसंद नहीं आएगी, उसे भी कमला हैरिस के संदर्भ में कह देना ठीक है। कमला के नाना नेहरू सरकार में अफसर थे, उन्होंने अपनी बेटी श्यामला को पढऩे के लिए अमरीका के बर्कले विश्वविद्यालय भेजा था जो कि अपने कट्टर वामपंथी रूझान की वजह से जेएनयू की याद दिलाता है। श्यामला की बेटी कमला अपने नाना की महिला-अधिकारवादी सोच से बहुत प्रभावित थी, और हर कुछ बरस में हिन्दुस्तान उनके पास रहने आती थी।
महिला अधिकार, और वामपंथी रूझान से मिलकर कमला हैरिस बनी है। और इधर सुनते हैं कि बिहार के चुनाव में भी वामपंथियों वाले तेजस्वी-गठबंधन को लीड मिल रही है, और वामपंथियों की सीटें बढ़ रही हैं। अमरीका और बिहार, इन दो जगहों के नतीजे और रूख से अगर लोगों को कुछ समझ पड़ता है, तो वे समझ लें।अमरीका में तो अब चार बरस कोई चुनाव नहीं होने हैं, लेकिन हिन्दुस्तान में इस दौरान कई चुनाव होंगे, और अगला आम चुनाव भी होगा।