अशोक झा (वरिष्ठ पत्रकार )
बिहार में चुनाव आयोग ने जो एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) शुरू किया है वह अगले नौ दिनों में समाप्त होने वाला है. इस पर काफी ज़्यादा बवाल मचा है पर यह बवाल यूँ ही नहीं है. इसको लेकर जो चिंताएँ ज़ाहिर की गयी हैं, वे जायज़ हैं. लोकतंत्र में मतदाता होना उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना जान बचाने के लिए किसी जान-बचाऊ प्रभावी हथियार से लैस होना. ऐसे में इस बारे में उन लोगों की चिंताएँ बिल्कुल सही हैं, जिन्हें लगता है कि उन्हें लक्ष्य करके बिहार में यह चलाया गया है. यह “उनको लक्ष्य करके” वाली बात यूँ ही नहीं कही जा रही है, बल्कि इसके समर्थन में एकाधिक सबूत मौजूद हैं. ऐसी स्थिति में सड़क से लेकर न्यायालय तक इसके खिलाफ लड़ाई कहीं से भी कम महत्वपूर्ण नहीं है.
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पर हम सब जानते हैं कि चुनाव आयोग ने जिस प्रक्रिया को आगे बढ़ा दिया, उसको रोका नहीं जा सकता भले ही उसमें कितनी भी ख़ामियाँ क्यों न हों. ऐसा जानबूझकर किया गया है और चुनाव आयोग को इसका हासिल भी मालूम है. मताधिकार से लोगों का वंचित होना या उन्हें जानबूझकर मतदाता सूची से बाहर कर देना, कोई नई बात भी नहीं है. कई बार इस आरोप में सच्चाई लगती है कि सत्ताधारी पार्टी ने चुनाव आयोग नामक संवैधानिक संस्था को अपने क़ब्ज़े में ले लिया है. सरकार जैसा चाहती है, चुनाव आयोग वैसा करने के लिए तत्पर दिखाई पड़ता है. पर ऐसा मानकर चुनाव आयोग को मनमानी नहीं करने दी जा सकती. यह अचरज की ही बात कही जाएगी कि जो बिहार खुद अपने लोगों को रोज़गार और शिक्षा नहीं दे पा रहा है, वहाँ बांग्लादेश, म्यांमार, भूटान और दूसरे देश के लोग क्यों आएँगे, जैसे कि एसआईआर के बहाने इस तरह के लोगों को ढूँढने का यहाँ प्रयास किया जा रहा है.
चुनाव आयोग जैसे चाहेगा, एसआईआर की प्रक्रिया तो पूरी कर ली जाएगी. पर इसके बाद क्या होगा?
चुनाव आयोग के इस क़दम के ख़िलाफ़ काफ़ी शोर मचा है, जो कि किसी तरह ग़लत नहीं है. पर इस शोर में दूसरे सारे अहम मुद्दे ख़ुदकुशी करते दिख रहे हैं. बिहार महज एक दूसरा राज्य नहीं है जहाँ चुनाव होने जा रहा है.
आप मानें या ना मानें, पर बिहार एक तरह से मरणासन्न है. उसे इस समय आइसीयू में होना चाहिए ताकि उसकी जान बचायी जा सके. पर बिहार के बारे में जो हो-हल्ला मचाया जा रहा है वह वैसा ही है जैसे किसी आदमी की जान बचाने की बजाय उसके अंतिम संस्कार की चिंता की जाए. बिहार के लिए सवाल अस्तित्व का है. बिहार ऐसी स्थिति में नहीं है कि कोई काम चलाऊ दवा देकर उसको कुछ समय तक ज़िंदा रखा जा सके. बिहार वास्तव में, ऐसी स्थिति में पहुँच चुका है कि उसके एक से अधिक अंग शिथिल हो चुके हैं. उसे आईसीयू में भी काफी समय तक रहना होगा. अगर आप बिहार या इस देश की उन्नति से बावस्ता हैं, तो बिहार से जुड़े आंकड़े और उनके निहितार्थ आपको सकते में डाल देंगे. किसी को भी बिहार के बचे होने पर अचरज होना स्वाभाविक है. देश की क़रीब 9% जनसंख्या का घर बिहार है .
अब ज़रा इन आँकड़ों को देखिए :
आर्थिक
सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) की दृष्टि से देखें तो देश में उसका स्थान 28 राज्यों में 14वां है.
देश की 9% जनसंख्या वाले राज्य का देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 2% से भी कम है.
बिहार की 15.73% जनसंख्या ग़रीबी रेखा से नीचे है.
यहाँ की प्रति व्यक्ति आय (2023-24) ₹ 59,637 जबकि राष्ट्रीय औसत ₹1,72000 है.
बेरोज़गारी की दर बिहार में क़रीब 13% है.
15-29 साल के लोगों में बेरोज़गारी यहाँ 30% से भी अधिक है और यह राष्ट्रीय औसत से तीन गुना है.
वर्क फ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी बिहार में 10% से भी कम है.
सामाजिक :
बिहार की क़रीब 60% जनसंख्या 25 साल से कम उम्र के लोगों की है.
बिहार में जन्म दर देश में सबसे अधिक है.
बिहार में 71.2% पुरुष और 51.5% महिलाएँ साक्षर हैं (2011 की जनगणना के अनुसार)
बड़ी संख्या में लड़कियों की शादी अभी भी 18 वर्ष से कम उम्र में हो जाती है.
अर्थशास्त्री प्राची मिश्रा के अनुसार, जहाँ तक आर्थिक बदहाली की बात है, दूसरे राज्यों की बात छोड़िए, बिहार को उड़ीसा के समकक्ष आने में 17 साल लग जाएंगे. उनका कहना है कि कुछ अर्थों में बिहार अफ़्रीका के सर्वाधिक पिछड़े हुए देशों की श्रेणी में आता है या कई अर्थों में उनसे भी ज़्यादा पिछड़ा हुआ है.
यहाँ की शिक्षा का हाल देखिए : ‘दैनिक भास्कर’ की 8 अगस्त 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 2600 से अधिक स्कूलों को दूसरे स्कूलों के साथ मिला दिया गया. ज़ाहिर है कि भारी संख्या में छात्रों के लिए स्कूलों तक उनकी पहुँच मुश्किल कर दी गयी. ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की 13 अप्रैल 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भूमि के अभाव में पूरे बिहार में 1885 प्राथमिक विद्यालय बंद कर दिए गए. पिछले 10-15 सालों से ये स्कूल या तो सामुदायिक भवनों या फिर पेड़ के नीचे चल रहे थे. 26 दिसंबर 2018 की ‘हिंदुस्तान टाइम्ज़’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2017-18 में सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या घटकर 1.8 करोड़ पर आ गयी जबकि 2016-17 में 1.99 करोड़ छात्रों का स्कूलों में पंजीकरण हुआ था. इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि स्कूलों में छात्रों की संख्या पर्याप्त नहीं होने के कारण 1140 से अधिक स्कूलों को बंद कर दिए जाने की आशंका है. शिक्षा का अधिकार के तहत 1-5 तक की कक्षा के छात्रों के लिए स्कूल एक किलोमीटर की दूरी के अंदर होना चाहिए.
बिहार एक ऐसा राज्य है जहाँ से भारी संख्या में लोग रोज़गार की तलाश में देश के अलग-अलग हिस्सों में जाते हैं. एक दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रवासियों/प्रवासी मज़दूरों का राज्य है. यहाँ की प्राथमिक शिक्षा जितनी बदहाल है उच्च शिक्षा उससे कहीं ज़्यादा बदतर है और जिन छात्रों के पास वहाँ से निकल भागने का थोड़ा भी अवसर मिलता है, वे भाग लेते हैं.
चुनाव आयोग के एसआईआर के हो-हल्ला में बिहार में सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से जुड़े अहम सवाल फ़िलहाल पीछे धकेल दिए गए हैं, ऐसा लगता है . ऐसा भी नहीं है कि एसआईआर की प्रक्रिया के पूरा हो जाने के बाद इस पर बहस बंद हो जाएगी. इसको राजनीतिक हथियार बनाया जाएगा जो कि किसी भी तरह अनुचित नहीं है. पर जैसी कि आशंका है, आर्थिक-सामाजिक मुद्दे ज़ेरे बहस से ग़ायब ही रहेंगे. ऐसे में अगर बिहार को चुनाव के बाद ऐसी सरकार मिलती है, जो उसके आर्थिक और महत्वपूर्ण सामाजिक संकेतकों को नज़रंदाज़ कर उसे ज़्यादा सनातनी और बहुसंख्यावादी बनाने के रास्ते पर ले जाएगी, तो बिहार देश के मानचित्र से भले ही ग़ायब नहीं हो, पर उसको वहाँ बनाए रखना बहुत ही दुष्कर होगा.
लेखक बिहार के मूल निवासी हैं, पत्रकार और अनुवादक हैं.
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