#politicswala Report
\दिल्ली। कल्पना कीजिए एक ऐसे लोकतंत्र की, जहाँ जनता सरकार नहीं, बल्कि सरकार ही अपने वोटर चुनने लगे। यह किसी दूर देश की कहानी नहीं, बल्कि भारत में लोकतंत्र के सामने खड़े एक ख़तरनाक सच की तस्वीर है, जो हाल ही में बिहार से आई एक ख़बर ने और साफ़ कर दी है।
द वायर के एम के वेणु से बातचीत में राजनीतिक अर्थशास्त्री परकला प्रभाकर ने इसी ख़तरनाक चलन पर रौशनी डाली है। मुद्दा बिहार के ढाका विधानसभा क्षेत्र का है, जहाँ कुल दो लाख से कुछ ज़्यादा वोटर हैं। यहाँ बीजेपी के विधायक कार्यालय से क़रीब 78,000 वोटरों के नाम वोटर लिस्ट से हटाने के लिए बाक़ायदा अर्ज़ी दी गई। यह कुल वोटरों का लगभग 40% हिस्सा है। चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से ज़्यादातर नाम मुस्लिम समुदाय के लोगों के थे।
प्रभाकर कहते हैं कि हम लोकतंत्र के एक ऐसे दौर में पहुँच गए हैं, जहाँ शासक दल धर्म, जाति या सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर उन वोटरों को ही सूची से हटाने की कोशिश कर रहा है, जिनके उसे वोट न देने की आशंका हो। यह अब कोई छुपी हुई साज़िश नहीं, बल्कि खुलेआम औद्योगिक पैमाने पर हो रहा है. यह कोई अकेली घटना नहीं है। इससे पहले कर्नाटक के महादेवपुरा और आलंदी में भी इसी तरह वोटर लिस्ट से बड़े पैमाने पर छेड़छाड़ के मामले सामने आ चुके है।
इस पूरी प्रक्रिया में चुनाव आयोग की भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठते हैं। प्रभाकर अपने एक दोस्त का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि बीजेपी के युवा मोर्चा और महिला मोर्चा की तरह चुनाव आयोग अब उसका ‘इलेक्शन मोर्चा’ बन गया है। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता इतनी कम हो गई है कि वह अब शासक दल की एक शाखा की तरह काम करता नज़र आता है।
प्रभाकर विपक्ष को ‘कसीनो सिंड्रोम’ से बाहर निकलने की सलाह देते है। जैसे कसीनो में कोई खिलाड़ी कभी-कभार छोटी-मोटी बाज़ी जीत जाता है, लेकिन अंत में हारता ही है, वैसे ही विपक्ष भी कहीं एक-दो चुनाव जीतकर ख़ुश हो जाता है। लेकिन इस प्रक्रिया में वह एक ऐसी धाँधली भरी व्यवस्था को वैधता दे रहा है, जिसमें उसकी स्थायी हार तय है।
वह आगाह करते हैं कि हो सकता है कि शासक दल विपक्ष को बिहार चुनाव जीतने दे, ताकि वोटर लिस्ट में छेड़छाड़ का मुद्दा शांत हो जाए और फिर वे पूरे देश में इस ‘राजनीतिक सफ़ाई’ के अभियान को अंजाम दे सकें। उनके लिए बिहार हारना एक बड़ी राष्ट्रीय जीत के लिए चुकाई गई छोटी क़ीमत होगी.
यह लड़ाई सिर्फ़ राजनीतिक दलों की नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को बचाने की है. सवाल यह है कि क्या विपक्ष इस कसीनो से बाहर निकलेगा या छोटी-मोटी जीत के धोखे में लोकतंत्र की सबसे बड़ी बाज़ी हार जाएगा।
