#Biharelection .. नीतीश के बिना बिहार की बिसात लगती नहीं

#Biharelection .. नीतीश के बिना बिहार की बिसात लगती नहीं

#Biharelection .. नीतीश के बिना बिहार की बिसात लगती नहीं

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बिहार की राजनीति फिर #Nitishhkumra नीतीश के इर्दगिर्द घूम रही है। वे एक ऐसे राजा है जो अपनी पार्टी की एक बार भी बहुमत न होने के बावजूद 20 से राजा बनेहुए हैं। उनके साथ जुडी पार्टियों के पास नीतीश से दुगुनी सीट होने के बावजूद सिंहासन पर नीतीश कुमार ही विराजते रहे हैं।

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चुनाव आयोग के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) पर चल रहे विवाद के बीच, यह लगभग तय है कि बिहार विधानसभा चुनाव एक बार फिर 74 वर्षीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द ही घूमेगा। भले ही पिछले कुछ समय से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा हो, लेकिन बिहार की राजनीति में उनकी केंद्रीयता और अहमियत जस की तस बनी हुई है।

कुछ सर्वेक्षण भले ही विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे बेहतर उम्मीदवार के रूप में पेश कर रहे हों, लेकिन इस राजनीतिक रूप से सजग राज्य के गठबंधनों के नाजुक सामाजिक संतुलन को देखते हुए, सारा ध्यान नीतीश पर ही केंद्रित रहता है। सुभाष गाताडे ने डेक्कन क्रोनिकल में लिखा है।

बिहार की राजनीति एक ऐसी सच्चाई पर टिकी है, जिसके अनुसार अगर एक भी अहम कड़ी हटा दी जाए तो पूरा गठबंधन ताश के पत्तों की तरह ढह जाता है। पिछले दो दशकों का अनुभव बताता है कि वह अहम कड़ी नीतीश कुमार की पार्टी जद(यू) ही रही है।

जिसके समर्थन के बिना न तो भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए और न ही राजद के नेतृत्व वाला महागठबंधन सत्ता में आ सकता है। बिहार में कहा जाता है कि लोग वोट नहीं देते, बल्कि अपनी जाति को वोट देते हैं।

यहां पड़ोसी उत्तर प्रदेश की तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण काम नहीं करता। नीतीश का तुरुप का इक्का जातीय जनगणना का समर्थन करना और उसे सफलतापूर्वक कराना रहा है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसने उन्हें अपने सामाजिक आधार पर मजबूत पकड़ बनाए रखने में मदद की है।

यह सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन नीतीश कुमार शायद स्वतंत्र भारत के एकमात्र ऐसे नेता हैं, जो 20 वर्षों तक एक बड़े राज्य का नेतृत्व कर रहे हैं, बिना एक बार भी अपनी पार्टी को अपने दम पर बहुमत दिलाए।

यह एक नेता के रूप में न केवल उनकी विश्वसनीयता को दर्शाता है, बल्कि सहयोगियों को दूसरे नंबर की भूमिका निभाने के लिए मजबूर करने की उनकी असाधारण क्षमता को भी दिखाता है, चाहे वे इसे पसंद करें या न करें।

भाजपा हो या लालू यादव की राजद, सत्ता के लिए दोनों को बारी-बारी से नीतीश कुमार के दरबार में हाजिरी लगानी पड़ी है। इसी प्रक्रिया में नीतीश को बिहार की राजनीति का ‘पलटू राम’ जैसा अनूठा उपनाम भी मिला, लेकिन इन विवादों से उनके सामाजिक आधार को कोई खास नुकसान नहीं हुआ।

अब जबकि चुनाव नजदीक हैं, भाजपा की दुविधा साफ दिख रही है. गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में संकेत दिया कि बिहार में एनडीए की जीत का मतलब जरूरी नहीं कि नीतीश की मुख्यमंत्री के रूप में वापसी हो।

उन्होंने कहा, “बिहार का सीएम कौन होगा, यह तो समय ही तय करेगा.” इस बयान ने उन अटकलों को हवा दे दी है कि भाजपा महाराष्ट्र का ‘एकनाथ शिंदे’ मॉडल बिहार में दोहराने पर विचार कर रही है।

जहां चुनाव किसी और के नेतृत्व में लड़ा जाए और मुख्यमंत्री कोई और बने. हालांकि, भाजपा की त्रासदी यह है कि वह बिहार में अब तक कोई ऐसा सर्वमान्य नेता नहीं खड़ा कर पाई है, जो नीतीश का विकल्प बन सके. इसलिए, प्रासंगिक बने रहने के लिए वह आज भी नीतीश का पल्लू पकड़कर चलने को मजबूर है।

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