अच्छे दिन की नई परिभाषा.. यही अच्छे दिन कहलाते हैं
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अच्छे दिन की नई परिभाषा.. यही अच्छे दिन कहलाते हैं

#विजयमनोहरतिवारी

आठ साल से विट्‌ठलभाई पटेल की स्मृति में इंदौर में जलसा होता है। विट्‌ठलभाई पटेल सांस्कृतिक प्रतिष्ठान के वे समर्पित कार्यकर्ता यह करते हैं, जो मध्यप्रदेश मूल के एक बहुआयामी व्यक्तित्व से बहुत निकट जुड़े रहे थे।

वे सागर के विट्‌ठलभाई पटेल थे, जिनके परिचय का दायरा सागर से मुंबई होकर भोपाल तक अनगिन किस्से-कहानियों में फैला हुआ है। सागर में वे एक उद्योगपति परिवार के वारिस थे।

मुंबई से उन्हें दुनिया भर में एक गीतकार के रूप में लोकप्रियता मिली। भोपाल के राजभवन में उन्हें मंत्री पद की शपथ लेते हुए देखा गया। वे सागर जिले की सुरखी विधानसभा सीट से चुनकर आते थे।

वे पहले गांधीवादी थे। फिर कांग्रेसी। एक जगह उन्होंने अपने बारे में कहा है कि उद्योग मेरी जीविका है, फिल्म शौक है, राजनीति कर्म है और कविता धर्म है।

अब आप ऐसे आदमी का एक ठिकाने का परिचय गढ़िए, जिसके पहले कविता संग्रह को प्रकाशित ही भवानी प्रसाद मिश्र जैसे हिंदी के प्रतिष्ठित कवि ने किया हो।

कांग्रेस के साथ उनके रिश्ते की सुई गांधी पर ही अटकी थी और वो गांधी दिल्ली में दस जनपथ के पते के निवासी नहीं, बल्कि साबरमती आश्रम वाले गांधी हैं।

बेशक राजनीति में उनके रिश्ते इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक थे। राहुल ने भी उनका नाम सुना होगा। 2012 के यूपी चुनाव में मैं दो महीने तक वहां था और दो बार राहुल गांधी की सभाओं में गया। ललितपुर और मैनपुरी। विट्‌ठलभाई लगभग हर दिन सुबह अपडेट लेते।

राहुल गांधी में उनकी आशा अंतहीन थी। उन्हें लगता था कि एक दिन वे एक प्रखर नेता के रूप में अपनी जगह बना लेंगे और कांग्रेस से बेहतर देेश को दिशा देनेे वाला कोई दूसरा दल है नहीं।

हम नहीं जानते कि वे आज होते तो लंदन में अपने प्रिय राहुल के दर्शन को सुनकर उनकी आशाओं का कोई अंत होता या नहीं!

2005 में खंडवा में किशोर कुमार की समाधि की बदहाली का लाइव प्रसारण टीवी पर देखते ही वे एक रुपया अभियान पर निकले और एक दिन इंदौर के एमजी रोड पर झोली फैलाए नजर आए।

उन्होंने सिनेमा में आखिरी गीत तीस साल पहले लिखा था लेकिन इंदौर में उनके दीवाने तब भी थे और वे किशोर कुमार की समाधि के लिए उनकी झोली में खुश होकर रुपए दे रहे थे।

मैंने बचपन में अपने गांव में एक बार कवि सम्मेलन में उन्हें कविता पाठ करते हुए देखा था जब वे बीच में उठकर मंच के पीछे चले जाया करते थे। एक बार जाकर देखा कि वे मजे से बीड़ी के कश ले रहे हैं।

बहुत बाद में नईदुनिया में काम के दौरान मैं उनके निकट आया। मैंने उन जैसा जन समर्पित नेता दूसरा नहीं देखा। वे खाने-कमाने, अपना घर भरने या अपने परिवार वालों को पार्टी में टिकाने के मकसद से राजनीति में नहीं आए थे। वे सच्चे दिल के चौबीस कैरेट आदमी थे।

बॉबी फिल्म के लिए “झूठ बोेले कौआ काटे’ उनका लिखा पहला गीत था, जो देश की गली-गली में गंूजा था। विट्‌ठलभाई रातों-रात मशहूर हो गए थे। और फिल्मों में जो आखिरी गीत था, वह भी लिखा बॉबी के लिए ही था लेकिन आया 25 साल बाद “दरिया दिल’ फिल्म में-“वो कहते हैं, हमसे अभी उमर नहीं है प्यार की।’

राजकपूर को यह बेहद पसंद था और रात की महफिलों में वे सबको बताया करते थे कि देखो विट्‌ठलभाई ने क्या खूब लिखा है!

1996 से दैनिक भास्कर में “परदे के पीछे’ कॉलम के जरिए लोकप्रिय हुए जयप्रकाश चौकसे को विट्‌ठलभाई पटेल ने ही राजकपूर से मिलवाया था। चौकसे के फिल्म वितरण या निर्माण की कारोबारी दिशा भी विट्‌ठलभाई की देन थी।

विट्‌ठलभाई कांग्रेसी थे। जयप्रकाश के लेखन में वामपंथ के स्वर फूटते थे। 2014 के बाद जयप्रकाश चौकसे की सिनेमाई लेखनी सियासी टीका-टिप्पणियों में बदलती गई। वे परदे के पीछे से पटाखे फोड़ते।

उनका दृढ़ विश्वास था कि यूपीए के विसर्जित होने से देश की ग्रह-दशाएं बदल दी गई हैं और देश तेज गति से रसातल की तरफ चला गया है।

उन्होंने जमकर लिखा और अखबार को भी अकारण अपयश का भागीदार बनाया। अगर बीस लोग उनसे सहमत थे तो अस्सी लोग असहमत भी थे। भास्कर में लिखने की भरपूर आजादी थी।

सुधीर अग्रवाल ने शायद ही कभी उनके लिखे पर रोकटोक की हो। कभी नहीं! कुछ महीनों पहले जयप्रकाश चौकसे का देहांत हो गया। खुद सुधीरजी ने उनके बारे में लिखा।

विट्‌ठलभाई पटेल सांस्कृतिक प्रतिष्ठान ने इस बार चौकसेजी के नाम से एक सम्मान निश्चित किया और एक दिन ललित अग्रवाल ने प्रतिष्ठान के निर्णय से मुझे फोन पर अवगत कराया। स्व. जयप्रकाश चौकसे के स्मृति सम्मान के लिए मुझे चुना गया। सुनते ही अटपटा लगा।

कहां चौकसे जी, कहां विजय मनोहर तिवारी। कहीं, कोई तालमेल नहीं। वे अपने क्षेत्र में शिखर पर थे। मैं उस रास्ते में भी ठीक से नहीं हूं। हां, इंदौर से नाता है। अखबारों में काम किया है। किताबें लिखी हैं। नियमित लिखता भी हूं। लेकिन हमारी धाराएं अलग ही नहीं, उलट ही हैं।

अव्वल तो मैं कतई नहीं मानता कि 2014 के बाद देश नर्क में चला गया है। मैंने विनम्रता से कहा कि क्यों मरणोपरांत चौकसेजी की आत्मा को कष्ट देते हो, निर्णय पर पुनर्विचार करो। किसी “अवार्ड वापसी ब्रांड कवि या लेखक’ को ले आओ।

वामपंथ का बर्क लगा हो तो और बेहतर। मैं तो अनूप जलोटा को सुनने के लिए रहूंगा ही। मुझे किसी ऐसे विषय में निमित्त न बनाया जाए, जो व्यर्थ ही लोगों को उलटबांसी लगे।

ललितजी को उम्मीद थी कि मेरी तरफ से यही कहा जाएगा। उनका नपातुला जवाब तैयार था। वे बोले कि यह विट्‌ठलभाई पटेल के मंच पर ही मुमकिन है। हम सिर्फ लेखनी का सम्मान करते हैं।

विट्‌ठल भैया की लेखनी को भी, जयप्रकाशजी की लेखनी को भी और आपकी लेखनी को भी।

विट्‌ठलभाई कांग्रेसी थे, जयप्रकाश चौकसे में वामपंथ की झलक थी अौर आपकी लेखनी में भी एक धार है। बस इतना ही काफी है।

विट्‌ठलभाई के स्मृति मंच से चौकसेजी की याद में आपको श्रीफल भेंट कर दिया जाए, चयनकर्ताओं की दृष्टि में यही गंगा-जमना-सरस्वती का मेल है। हम हर संभावित तर्क-कुतर्क पर विचार कर चुके हैं।

मैं चुप रह गया। रवींद्रनाट्य गृह के शानदार जलसे में राम और मीरा के भक्तिगीत सुनने जाना ही था। विनम्रतापूर्वक श्रीफल भी स्वीकार कर लिया।

भोपाल की डाॅ. ऋतु शर्मा ने जयप्रकाश चौकसे के संस्मरणों का संकलन एक किताब में किया है, जो इसी साल छपी है। पहला फोन उन्हीं का आया।

वे भी चौंकी हुई थीं। चौकसेजी की कलम आैर मेरी कलम की दो दिशाएं उनके सामने भी जाहिर थीं।

फिर कैसे यह श्रीफल मुझे मिला। व्हाट्सएप पर मीडिया के कुछ समूहों में मेरे मित्रों ने भी मजे लिए।

मैं क्या कहता? ललितजी की दलील दोहरा दी और इतना ही कहा- “यही दिन देखने थे। यही अच्छे दिन कहलाते हैं!’
और क्या कहता!

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