सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )
आज दुनिया की एक बड़ी फिक्र यह है कि बहुत से देशों में लोगों के पास खाने-पीने को नहीं है। कुछ देश गृह युद्ध की वजह से, तो कुछ देश सूखे की वजह से भुखमरी की कगार पर हैं।
अफ्रीका के कुछ देश भुखमरी का लंबा इतिहास झेल रहे हैं, लेकिन अभी युद्ध जैसे लंबे दौर से गुजरे हुए अफगानिस्तान में भी बच्चों के खाने-पीने को नहीं है, लोग अपने बच्चों को बेच रहे हैं।
दुनिया के लोग यह भी मान कर चल रहे हैं कि आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है उससे कुछ वक्त बाद जाकर धरती पर अनाज की, या खाने-पीने के सामानों की कमी होने लगेगी।
बहुत से लोगों का यह भी कहना है कि मांस के लिए जिन पशुओं को पाला जाता है, उनकी वजह से पानी की खपत बहुत बढ़ जाती है और कई तरह की गैस हवा में घुलती है जिससे मांस पर्यावरण के मुताबिक खान-पान का अच्छा विकल्प नहीं है।
कई जागरूक देश धीरे-धीरे मांस की खपत कम कर रहे हैं जिसके पीछे पर्यावरण को बचाना एक मकसद है, लेकिन लोगों को अधिक मांस खाने से रोकना भी एक दूसरा मकसद है ताकि उन्हें कई किस्म की बीमारियां न हों।
दुनिया एक अलग किस्म के उथल-पुथल से गुजरते ही रहती है जिसके चलते कुछ देश अपना अधिक अनाज समंदर में फेंक देते हैं और कुछ दूसरे देशों के बच्चे और बड़े लोग कुपोषण और भुखमरी का शिकार होकर कम उम्र में मर जाते हैं, या वक्त के पहले खत्म हो जाते हैं।
दुनिया का भविष्य कैसा होगा इसे सोचते हुए लोग खाने-पीने के बारे में जरूर सोचते हैं इतनी आबादी के लिए अनाज कहां से आएगा, या खाने-पीने के और दूसरे कौन से सामान जुटाए जा सकते हैं।
हिंदुस्तान में जब कोई व्यक्ति महीनों तक बिना खाए रह लेते हैं, तो दुनिया के बहुत से वैज्ञानिक रिसर्च के लिए पहुँच जाते हैं कि क्या इसका कोई इस्तेमाल गरीब आबादी के लिए भी हो सकता है?
ऐसे में यूरोप में खानपान को सुरक्षा सर्टिफिकेट देने वाली सबसे बड़ी कानूनी संस्था यूरोपीयन फूड सेफ्टी अथॉरिटी ने अभी टिड्डों को खाने के लायक सुरक्षित माना है और उसकी मंजूरी दी है।
टिड्डों की दिक्कत दुनिया के कई देशों में भयानक बढ़ते चल रही है और अफ्रीका से शुरू होकर ये टिड्डे ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान होते हुए हिंदुस्तान तक आते हैं और न सिर्फ फसलों को चट कर जाते हैं, बल्कि किसी भी तरह की पत्तियां चाहे वे पेड़ों पर हों चाहे पौधों पर हों, उन सबको खाकर खत्म कर देते हैं।
इन तमाम देशों में टिड्डी दलों को फसल और इंसानों पर एक बहुत बड़ा खतरा माना गया है. ऐसे में जब यूरोप ने कानूनी मंजूरी देकर टिड्डों को खाना या उनको जमाकर, या उन्हें सुखाकर और पीसकर, तरह-तरह के खानपान बनाने को मंजूरी दी है तो इससे एक बिल्कुल नई संभावना आ खड़ी हुई है। ऐसा भी नहीं कि कीड़े-मकोड़े कभी खानपान में शामिल ही नहीं थे।
चीन सहित बहुत से ऐसे देश हैं जहां पर तरह-तरह के कीड़ों को हमेशा से खाया जाता रहा है और उन्हें गरीबी की वजह से नहीं, पेट भरने के लिए नहीं, स्वाद के लिए और न्यूट्रीशन के लिए भी खाया जाता रहा है।
इसलिए अब जब यूरोप में खाई जाने लायक चीजों की फेहरिस्त में टिड्डों को जोड़ दिया गया है तो ऐसा लगता है कि खानपान में एक नई चीज जुड़ी है जिससे कि धरती के मौजूदा खानपान पर बोझ घटेगा।
यूरोप में कुछ एक कंपनियां पहले से टिड्डों से उनके भारी प्रोटीन की वजह से उन्हें सुखाकर, या सुरक्षित करके तरह-तरह के खानपान बनाते आई थीं। अभी उनका जानवरों के खानपान में अधिक इस्तेमाल हो रहा था, लेकिन अब इंसानों के खानपान में इसके शामिल होने से बहुत से मांसाहारी लोगों की प्रोटीन की जरूरत पूरी हो सकेगी और जहां कहीं टिड्डों का हमला होता है वहां भी उनसे खान-पान तैयार हो सकेगा।
जिस तरह आज पोल्ट्री फॉर्म में मुर्गी या अंडा तैयार किए जाते हैं, डेयरी में दूध तैयार किया जाता है या दुनिया में कई जगह मांस के लिए भी जानवरों को पाला जाता है, उसी तरह टिड्डों को पैदा करने के ऐसे केंद्र तैयार हो सकते हैं जहां उनकी आबादी बढ़ाई जाए और वही हाथ के हाथ लगी हुई फैक्ट्री में उनसे डिब्बाबंद या पैकेटबंद सामान बनाए जाएं।
दुनिया की बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो शौक से भी अलग अलग किस्म के सामान खाती है और बहुत सी आबादी ऐसी है जो मजबूरी में कई किस्म की चीजें खा लेती है। इन सबके बीच टिड्डों दूसरे कीड़े-मकोड़ों के साथ एक अलग बाजार भी रहेंगे और खान-पान का सामान भी रहेंगे।
कीट पतंगों से खानपान बनाने वाली यूरोप की एक बहुत बड़ी कंपनी का कहना है कि टिड्डे प्रोटीन और फाइबर से समृद्ध होते हैं, उनमें खूब विटामिन और मिनरल होता है और वे मैग्नीशियम, कैल्शियम, और जिंक से भरपूर रहते हैं. टिड्डों का प्रोटीन बहुत आसानी से पचने वाला रहता है और इन चीजों से बनाए गए सामान नाश्ता बनाने से लेकर बर्गर बनाने तक, भोजन में, और यहां तक कि मिठाइयों में भी इस्तेमाल हो सकते हैं।
इस कंपनी का कहना है कि आज वैसे भी खिलाडिय़ों के बीच में अधिक प्रोटीन की बड़ी जरूरत रहती है, इसके अलावा कुछ बुजुर्ग या दूसरे लोगों को भी अधिक प्रोटीन लगता है, ऐसे तमाम लोगों के बीच टिड्डों से मिला हुआ यह प्रोटीन बहुत काम का हो सकता है।
इसी कंपनी की अर्जी पर यूरोपीयन फूड सेफ्टी अथॉरिटी ने तमाम जांच करके अभी यह मंजूरी दी है। लेकिन यह मंजूरी महज इस कंपनी तक सीमित नहीं है और इस मंजूरी के बाद दुनिया भर में कीट-पतंगों के खानपान में इस्तेमाल के रिसर्च में लगी हुई कंपनियां तेजी से आगे बढ़ेंगी, और यह मार्केट आज के मौजूदा मांसाहार और प्रोटीन के बाजार में एक नई संभावना लेकर आएगा।
भारत में भी राजस्थान सहित कुछ दूसरे राज्यों ने पिछले वर्षों में लगातार टिड्डी दल का हमला देखा हुआ है। ऐसे में तमाम मांसाहारी लोगों के बीच एक संभावना यह पैदा होती है कि ऐसे हमले में आने वाले टिड्डी दल को किस तरह पकड़ा जाए और किस तरह खाया जाए।
इससे फसल भी बच सकेगी और एक नया खान-पान मिल सकेगा। क्योंकि सैकड़ों और हजारों बरस से चीन जैसे कई देशों में कई तरह के कीट-पतंग खाने का रिवाज लगातार चला आ रहा है, इसलिए उससे बड़ी कोई रिसर्च न तो हो सकती है न उसकी जरूरत है।
अब देखना यही है कि अलग-अलग इलाकों में खानपान का स्वाद किस तरह टिड्डों को अपने भीतर जगह दे पाता है। लेकिन इससे एक ऐसी संभावना तो खड़ी होती है कि धरती पर खानपान, और न्यूट्रिशन की कमी को दूर करने के लिए एक छोटा या बड़ा रास्ता निकल रहा है।