Bihar Voter List Revision: बिहार विधानसभा चुनाव से पहले मतदाता सूची में बड़े बदलाव की तैयारी ने देशभर में राजनीतिक हलचल तेज कर दी है।
चुनाव आयोग द्वारा राज्य में “स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन” (SIR) शुरू किए जाने के खिलाफ विपक्षी दलों के नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन शीर्ष अदालत ने गुरुवार को इस प्रक्रिया पर रोक लगाने से इनकार कर दिया।
हालांकि कोर्ट ने चुनाव आयोग से पारदर्शिता बरतने, नागरिकों को अपील का मौका देने और पहचान पत्रों को मान्यता देने जैसे महत्वपूर्ण निर्देश जरूर दिए।
अब मामले में अगली सुनवाई 28 जुलाई, 2025 को दोपहर 2 बजे होगी।
प्रक्रिया संवैधानिक, पर टाइमिंग पर सवाल
सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्या बागची ने करीब तीन घंटे तक चली सुनवाई के बाद कहा कि विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) प्रक्रिया चुनाव आयोग की संवैधानिक जिम्मेदारी है, लेकिन इसे चुनाव से कुछ महीने पहले किया जाना चाहिए था।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि समस्या आपकी प्रक्रिया में नहीं है, समस्या आपकी टाइमिंग की है। चुनाव नजदीक हैं, ऐसे में लोगों के पास अपील करने और जवाब देने का समय नहीं होगा।
कोर्ट ने यह भी पूछा कि अगर किसी का नाम सिर्फ नागरिकता साबित करने पर जोड़ा जाएगा, तो यह बड़ी कसौटी होगी।
नागरिकता की जांच गृह मंत्रालय का काम है, चुनाव आयोग को उसमें नहीं पड़ना चाहिए।
आधार को पहचान पत्र क्यों नहीं मानते?
सुनवाई के दौरान अदालत ने चुनाव आयोग से पूछा कि वह आधार, वोटर आईडी और राशन कार्ड जैसे सामान्य और व्यापक पहचान पत्रों को स्वीकार क्यों नहीं कर रहा।
कोर्ट ने कहा कि इन दस्तावेजों को पहचान के तौर पर मान्यता दी जाए, न कि सिर्फ पासपोर्ट या नागरिकता प्रमाणपत्र मांगे जाएं, क्योंकि भारत में केवल 2% लोगों के पास ही पासपोर्ट है।
EC की ओर से वकीलों ने जवाब दिया कि आधार से नागरिकता प्रमाणित नहीं होती, इसलिए उसे स्वीकार नहीं किया जा रहा।
इस पर कोर्ट ने दोहराया कि नागरिकता की जांच करना गृह मंत्रालय का दायित्व है, न कि चुनाव आयोग का।
कोर्ट के आदेश: 3 सवालों का दें जवाब
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के अंत में चुनाव आयोग से तीन मुख्य बिंदुओं पर लिखित जवाब मांगा:
- क्या चुनाव आयोग को मतदाता सूची में संशोधन करने की संवैधानिक शक्ति है?
- यह प्रक्रिया किस नियम और तरीके से चलाई जा रही है?
- क्या यह प्रक्रिया चुनाव से कुछ महीने पहले करना उचित समय माना जा सकता है?
अदालत ने कहा कि यह मामला लोकतंत्र और नागरिकों के मतदान अधिकार से जुड़ा है, इसलिए इसमें अत्यधिक सावधानी और पारदर्शिता जरूरी है।
मनमाने ढंग से हो रहा बिहार में रिवीजन
इस प्रक्रिया के खिलाफ राजद सांसद मनोज झा, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा समेत 11 लोगों ने याचिकाएं दायर की थीं।
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकीलों कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी और गोपाल शंकरनारायण ने कोर्ट में दलीलें पेश कीं।
उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग ने मतदाता सूची संशोधन की पारंपरिक विधियों संक्षिप्त संशोधन (summary revision) और व्यापक संशोधन (intensive revision) को दरकिनार करते हुए एक नया शब्द “स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन” गढ़ लिया है, जो कानून में नहीं है।
वकीलों का तर्क था कि जब 2003 में ऐसा व्यापक संशोधन हुआ था, तब राज्य में मतदाताओं की संख्या काफी कम थी।
अब बिहार में सात करोड़ से ज्यादा वोटर हैं और प्रक्रिया बेहद तेज गति से चलाई जा रही है। इससे लाखों लोगों के वोटिंग अधिकार प्रभावित हो सकते हैं।
नागरिकता साबित करने का बोझ मतदाता पर क्यों?
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि चुनाव आयोग का काम नागरिकता तय करना नहीं है।
उन्होंने कहा कि वोटर लिस्ट में नाम दर्ज करने से पहले आयोग बर्थ सर्टिफिकेट, मनरेगा कार्ड, वोटर आईडी जैसे दस्तावेजों को भी नकार रहा है। यह गरीब और वंचित तबकों के खिलाफ अन्याय है।
उन्होंने कहा कि मतदाता सूची में नाम न होने की स्थिति में किसी को गैर-नागरिक ठहराना खतरनाक और असंवैधानिक है।
चुनाव आयोग को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी को भारतीय नागरिक न माने बिना कानूनी प्रक्रिया के।
वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कोर्ट में कहा कि जिस तरह 2003 में व्यापक संशोधन हुआ था, वह चुनाव से काफी पहले हुआ था, जिससे लोगों के पास तैयारी का समय था।
लेकिन इस बार आयोग ने जून के अंत में SIR की घोषणा की और अब 30 दिनों में पूरी प्रक्रिया करने की बात कर रहा है।
इससे लाखों लोगों के नाम बिना उचित सूचना और सुनवाई के हटा दिए जाने की आशंका है।
किसी को बिना सुनवाई लिस्ट से नहीं हटाएंगे
चुनाव आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी और पूर्व अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कोर्ट में कहा कि आयोग को यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत प्राप्त है।
उन्होंने कहा कि आयोग नागरिकता की जांच नहीं कर रहा बल्कि सिर्फ यह सुनिश्चित कर रहा है कि मतदाता वैध हो।
EC ने भरोसा दिलाया कि कोई भी व्यक्ति बिना नोटिस और सुनवाई के मतदाता सूची से बाहर नहीं किया जाएगा। उन्होंने कोर्ट से अपील की कि आयोग को प्रक्रिया पूरी करने दी जाए।
हालांकि, यह मामला बिहार से जुड़ा है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान यह संकेत मिला कि ऐसी ही प्रक्रिया अन्य राज्यों, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में भी शुरू हो सकती है।
इससे इस विवाद को राष्ट्रीय राजनीति में भी गर्मा सकता है, खासकर जब विपक्षी दल इसे डराने और अधिकार छीनने की साजिश बता रहे हैं।
फिलहाल, इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की मंशा पर सीधे सवाल नहीं उठाए हैं।
लेकिन, यह जरूर साफ किया कि मतदाता सूची संशोधन की प्रक्रिया चुनाव के इतने करीब न हो कि नागरिकों को अपने अधिकारों की रक्षा का मौका ही न मिले।
कोर्ट ने EC को पारदर्शिता बढ़ाने, पहचान पत्रों की स्वीकार्यता में लचीलापन लाने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने का निर्देश दिया।
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