महात्मा गांधी के परपोते तुषार गांधी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं। उनका तर्क है कि साबरमती आश्रम पर 1200 करोड़ के खर्च से सादगी और किफायत का गांधी का पूरा दर्शन ही परास्त हो जाएगा।
सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )
गुजरात के अहमदाबाद में मौजूद महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम के पूरे इलाके को विकसित करने के गुजरात सरकार के एक बहुत बड़े इरादे के खिलाफ गांधी के पड़पोते तुषार गांधी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं।
गुजरात हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के खिलाफ तुषार की याचिका खारिज कर दी थी, और अब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की है। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी सुनवाई मंजूर कर ली, और कल उसने गुजरात हाईकोर्ट को यह निर्देश दिया है कि वह तुषार गांधी की अपील की जांच करे।
राज्य की भाजपा सरकार ने साबरमती आश्रम को बारह सौ करोड़ रूपए लगाकर विकसित करने की योजना बनाई है। इसमें आश्रम के मूल ढांचे को तो नहीं छुआ जा रहा है, लेकिन उसके आसपास कई एकड़ की जमीन पर विशाल योजना है, जिसे तुषार गांधी महात्मा गांधी की सोच के खिलाफ बतला रहे हैं।
उनका तर्क है कि इससे सादगी और किफायत का गांधी का पूरा दर्शन ही परास्त हो जाएगा। गुजरात सरकार की ओर से हाईकोर्ट में यह केस आने पर एक छोटा सा जवाब दे दिया गया था कि साबरमती आश्रम के मूल ढांचे को नहीं छुआ जा रहा है, और हाईकोर्ट ने उस जवाब से संतुष्ट होकर तुषार गांधी की याचिका खारिज कर दी थी।
गांधी की अपनी जिंदगी सादगी और त्याग की एक मिसाल रही। उन्होंने एक धोती को काटकर दो टुकड़े किए, और एक वक्त पर एक टुकड़े से ही अपना काम चलाया। वे कम से कम सामान और खपत के साथ जीते थे, अपने खुद के तमाम काम खुद करते थे, और उनके आश्रमों की जिंदगी भी बहुत ही किफायत की थी।
यह सोच पाना भी तकलीफ देता है कि गांधी के आश्रम को विकसित करने पर बारह सौ करोड़ रूपए खर्च किए जा रहे हैं, और उस देश में खर्च किए जा रहे हैं जहां आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी गरीबी की रेखा के नीचे है, भूख की कगार पर है, जिसके बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, जिन्हें ठीक से इलाज नसीब नहीं है, जिन्हें ठीक से इंसाफ नसीब नहीं है।
ऐसे देश में सरदार पटेल के नाम पर तीन हजार करोड़ से अधिक की एक प्रतिमा बना दी गई, और अब गांधी के आश्रम के पूरे इलाके को बारह सौ करोड़ रूपए से एक नई शक्ल दी जा रही है, यह जाहिर है कि वहां आश्रम की दहलीज तक पहुंचते-पहुंचते लोग इतना कुछ देख चुके रहेंगे कि गांधी की किफायत की सोच की हवा खत्म हो चुकी होगी।
यह देश अब निर्माण के ठेके देने वाली सरकारों, ठेके पाने वाले ठेकेदारों, और योजनाओं पर अपने नाम का ठप्पा लगाने वाले नेताओं और योजनाशास्त्रियों का देश होकर रह गया है। छत्तीसगढ़ में नई राजधानी बनाने के लिए नया रायपुर नाम का एक खाली शहर बसाया गया था, जहां आज भी मरघटी सन्नाटा छाया रहता है, और उस पर भी हजारों करोड़ रूपए खर्च कर दिए गए थे जिसकी कोई उत्पादकता नहीं है।
कुछ ऐसा ही हाल बरसों तक गुजरात की राजधानी अहमदाबाद के बारे में सुनाई पड़ता था जहां गांधीनगर नाम का नया राजधानी शहर बसाया गया था, और जहां बरसों तक दिन में भी उल्लू बोलते थे। सरकार और ठेकेदार के लिए खूबसूरत सपने की तरह का नया रायपुर आज भी अपने सन्नाटे के चलते एक छत्तीसगढ़ी कहावत याद दिलाता है कि वहां मरे रोवय्या न मिले।
सरकारों की ऐसी बड़ी योजनाएं जिनसे जनता का कोई भला नहीं होता, वे अहंकार और कमाई दोनों के लिए बनाई जाती हैं, कुछ से अहंकार पूरा होता है, कुछ से कमाई पूरी होती है, और कुछ से दोनों साथ-साथ पूरे होते हैं। अब बारह सौ करोड़ रूपए जिस साबरमती के संत के नाम पर खर्च किए जा रहे हैं, उसने अपनी पूरी जिंदगी यह कहते हुए गुजारी कि लोगों के काम ऐसे रहने चाहिए कि उससे समाज के सबसे कमजोर तबके के आखिरी व्यक्ति का फायदा हो सके। आज सरकारों के फैसले नेताओं और ठेकेदारों को फायदा देते हैं, फिर चाहे वे गांधी की स्मृतियों को कुचल देने की कीमत पर ही क्यों न हों।
इस देश को महान विरासतों से लेकर शहरों की स्थानीय विरासत तक जहां जो मिला है, उसे राह चलते मिल गई बिन मालिक की गाय की तरह दुहने के लिए लोग उतारू रहते हैं। इस देश के शहरों को देखें तो सैकड़ों या हजारों बरस पहले के जो तालाब हैं, आज उनका बाजारू इस्तेमाल हो रहा है, अंग्रेजों के वक्त छोड़े गए खेल के मैदानों को काट-काटकर वहां मनोरंजन और पार्किंग का इस्तेमाल हो रहा है, कहीं तालाबों को पाटकर खाने-पीने के बाजार बनाए जा रहे हैं, और सुप्रीम कोर्ट के तमाम हुक्म कचरे की टोकरी में फेंक दिए गए हैं।
सरकार और बाजार की मिलीजुली बदनीयत इतनी ताकतवर हो जाती है कि उसके खिलाफ लंबी अदालती लड़ाई भी अगर कोई रोक लाती है, तो उससे बचने के लिए सरकारें इतना संघर्ष करती हैं जितना संघर्ष किसी पेशेवर मुजरिम का नियमित वेतनभोगी वकील भी नहीं करता।
जिन लोगों को आज गांधी को गालियां देने वालों को और गोडसे का महिमामंडन करने वालों को संसद पहुंचाने में ओवरटाईम करना सुहा रहा है, वे अगर गांधी की स्मृति पर हजारों करोड़ रूपए खर्च करने जा रहे हैं, तो वह गांधी के लिए नहीं है, नेता, आर्किटेक्ट, और ठेकेदार के भले के लिए है।
ठीक ऐसा ही दिल्ली में बीस हजार करोड़ रूपए खर्च करके नए संसद भवन और उसके इलाके को बनाने में किया जा रहा है। देश की विरासत को बर्बाद करने की एक बड़ी मिसाल जालियांवाला बाग है जहां पर ऐतिहासिक निशानों को मिटाते हुए, दीवारों पर दर्ज इतिहास खत्म करते हुए उस पूरे इलाके को सैलानियों के कारोबार के लिए विकसित किया गया है, और उस भयानक त्रासदी की अनगिनत यादों को मिटा दिया गया है।
रूस तो आज यूक्रेन पर हमला करते हुए वहां की ऐतिहासिक इमारतों को खत्म कर रहा है, लेकिन हिन्दुस्तान में तो यहां की सरकार ही इस काम में लगी है, और बाकी प्रदेशों में भी सरकारें अपने-अपने स्तर पर ऐतिहासिक या प्राकृतिक धरोहरों को खत्म करके एक कार्यकाल की अधिक से अधिक काली कमाई का रिकॉर्ड बनाने में लगी हुई हैं।
गुजरात हाईकोर्ट ने तुषार गांधी के तर्क को नहीं समझा, यह उस हाईकोर्ट की कमजोर समझ है, जो कि सरकार का साथ देने से कम नहीं है। हमारा यह मानना है कि साबरमती आश्रम हो या कि गांधी से जुड़ी हुई कोई भी और याद, उसके संरक्षण के अलावा और कोई आधुनिक या सरकारी दखल उनमें नहीं होना चाहिए, वह इतिहास को खत्म करना भी होगा, और गांधीवाद को भी।