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सुनील कुमार ( वरिष्ट पत्रकार )
गुजरात की खबर है कि दो साल पहले वहां मोरबी में हुए एक पुल हादसे में 135 मौतों के मुख्य आरोपी, उद्योगपति जयसुख पटेल को जमानत मिलने पर उनके समाज ने अभी लड्डुओं से तौला, और उन्हें हजारों लोगों में बांटा गया। पुल हादसे में मारे गए लोगों के परिवारों का कहना है कि यह उनके जख्मों पर नमक रगडऩे जैसा है। लड्डुओं से तौलने के लिए एक भव्य समारोह किया गया था जिसमें खूब साज-सज्जा की गई थी। यह पहला मौका नहीं है कि किसी जुर्म से घिरे हुए व्यक्ति का सम्मान किया गया हो। इसी गुजरात में जब बिल्किस बानो के सामूहिक बलात्कार, और उसके परिवार के कत्ल के 11 मुजरिमों को सजा के बीच माफी देकर छोड़ा गया, तो उनका भी माला पहनाकर स्वागत किया गया था। बाद में गुजरात और केन्द्र सरकार की मंजूरी से हुई इस रिहाई का विरोध हुआ, और आखिर में जाकर सुप्रीम कोर्ट ने इसे नाजायज और असंवैधानिक पाया, और इन तमाम 11 लोगों को फिर से जेल भेजा गया। इस बीच इनका स्वागत, अभिनंदन चलते रहा। ऐसे और भी मामले हैं जिनमें बलात्कार या साम्प्रदायिक कत्ल के आरोपियों के छूटने पर उनका सार्वजनिक स्वागत-अभिनंदन हुआ। एक मामले में तो एक मुस्लिम की भीड़त्या के 11 मुजरिमों को जमानत मिली तो वे केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा के बंगले पर पहुंचे और वहां जयंत ने मालाएं पहनाकर उनका स्वागत किया। पूरे देश में जगह-जगह साम्प्रदायिक हत्याओं, और बलात्कार के आरोपियों का उसी तरह औपचारिक और सार्वजनिक अभिनंदन होता है जैसा कि नाथूराम गोडसे का होता है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत में सार्वजनिक जीवन के मूल्यों का अंत पूरी तरह से हो चुका है? क्या साम्प्रदायिकता ने, साम्प्रदायिक नफरत ने हजारों बरस के सभ्यता के विकास को मटियामेट कर दिया है? क्या जातिवादी या साम्प्रदायिक नफरत हर किस्म की हिंसा और जुर्म को जायज ठहराने लगी है? और इसका अंत क्या होगा? एक वक्त तो ऐसा लगता था कि किसी परिवार के लोग रेप या कत्ल जैसे जुर्म में शामिल साबित हो जाएंगे, तो उस परिवार से लोग रोटी-बेटी का रिश्ता रखने से कतराएंगे। लेकिन आज तो हालत यह है कि गाय बचाने के नाम पर लोग अगर दूसरे धर्म के लोगों को, या खुद अपने ही धर्म की नीची समझी जाने वाली जाति के लोगों को मार डालते हैं, तो भी उनका गौसेवक के रूप में सार्वजनिक सम्मान होता है। और इन्हीं गौसेवकों की वैचारिक-बिरादरी जिस सावरकर को अपना आदर्श मानती है, उस सावरकर ने गाय को महज एक जानवर करार दिया था, और गाय की उत्पादकता खत्म हो जाने के बाद उसे खा जाने की वकालत की थी। लेकिन आज जाति, धर्म, और गौप्रेम, ये तमाम बातें चुनावी राजनीति का सबसे धारदार हथियार बन चुकी हैं, और इस नाते इनका इस्तेमाल बढ़ते चल रहा है, और इन मुद्दों से जुड़े हुए फतवे बंटेंगे तो कटेंगे की शक्ल में हवा में तैर रहे हैं, यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली मिक गैस से भी अधिक जहरीले बनकर।
ऐसा लगता है कि न सिर्फ हिन्दुस्तानी लोगों, बल्कि अमरीका, और योरप के कई अधिक सभ्य, अधिक लोकतांत्रिक दिखते देशों में भी सभ्यता की जड़ों के आसपास से मिट्टी तेजी से हटती जा रही है, और कहीं इटली, तो कहीं फ्रांस, और कहीं ट्रम्प के अमरीका में अलोकतांत्रिक, साम्प्रदायिक, नस्लभेदी, और कट्टरपंथी ताकतें कामयाबी पा रही हैं। जाहिर तौर पर जो लोग एक विकसित सभ्यता के दुश्मन हैं, उनका बोलबाला कई जगहों पर दिख रहा है। ऐसा शायद इसलिए भी हो रहा है कि विकसित सभ्यता के मुताबिक काम करना ताकतवर तबके को कई चीजों का याद करने, और अधिकार बांटने की जिम्मेदारी देता है, और कमजोर तबकों का साथ देने को मजबूर भी करता है। इतना त्याग शायद बहुत से लोगों को अब मंजूर नहीं है। खुद हिन्दुस्तान के भीतर हम देखते हैं कि जाति-आधारित आरक्षण का भी लोग विरोध करते हैं, किसी अल्पसंख्यक को किसी योजना के तहत प्राथमिकता या फायदा मिलने का सिलसिला तो खत्म ही कर दिया गया है, और गरीबों को मिलने वाली कुछ मामूली रियायतों, या राहतों को भी लोग नाजायज मानने लगे हैं। सभ्यता का हजारों बरस का विकास लोगों में सामाजिक समानता, और सामाजिक न्याय की विकसित हो चुकी भावना को भी कायम नहीं रहने दे रहा है। ऐसा लग रहा है कि हजारों बरसों में जो सीखा था वह कुछ दशकों में गंवा दिया गया है।
एक दूसरी बात भी हैरान करती है कि चुनिंदा किस्म के साम्प्रदायिक और जातिवादी मुजरिमों का सम्मान करना उनकी बिरादरी के कुछ नेताओं के लिए तो काम का हो सकता है कि उससे उस धर्म या जाति का ध्रुवीकरण होगा, लेकिन इस तरह सम्मान करवाने वाले लोग भी इसके खतरे नहीं समझते। अगर बिल्किस बानो के बलात्कारियों का ऐसा सार्वजनिक सम्मान नहीं हुआ होता, तो शायद सुप्रीम कोर्ट भी इतनी कड़ाई से उन्हें वापिस जेल नहीं भेजता। लेकिन किसी भी जिम्मेदार और सरोकारी इंसान को हिंसा का सम्मान प्रभावित करता ही है, और लोग ऐसी गैरजिम्मेदार हरकत के खिलाफ बोलने के लिए, फैसला देने के लिए बेबस हो जाते हैं।
जो समाज या जो संगठन अपने मुजरिमों को लेकर गर्व और गौरव से भर जाते हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि उनके कुएं से बाहर दुनिया बहुत बड़ी है, और वह दुनिया ऐसे अभिनंदनों को हिकारत से देखती है। दुनिया का इतिहास भी यह अच्छी तरह दर्ज करते चलता है कि किन लोगों ने हिटलर का सम्मान किया था, कौन लोग गोडसे का सम्मान करते हैं, और किन लोगों ने गाय बचाने के फर्जी नारे के साथ बेकसूर मुस्लिमों को घेरकर मारा था, और फिर भी उनके समर्थकों ने उन्हें सम्मान के लायक पाया था। चुनावों के पांच-पांच बरस के दौर तो आते-जाते रहते हैं, इतिहास में कलंक अच्छी तरह दर्ज होते हैं, बड़े-बड़े हर्फों में। जो तबके हत्यारों और बलात्कारियों को अपने समुदाय के हीरो मानते हैं, वे इतिहास में जीरो के भी नीचे दर्ज होते हैं।