Mumbai Train Blast Case

Mumbai Train Blast Case

मुंबई ट्रेन ब्लास्ट केस: बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को महाराष्‍ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दी चुनौती

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Mumbai Train Blast Case: महाराष्ट्र सरकार ने 2006 के बहुचर्चित मुंबई ट्रेन सीरियल ब्लास्ट केस में बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है।

हाईकोर्ट ने सोमवार को इस मामले में सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया था, जिसे लेकर कई सवाल उठने लगे हैं।

इस फैसले के बाद यह बहस फिर से शुरू हो गई है कि आखिर 189 लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन है?

राज्य सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में तत्काल सुनवाई की मांग की है।

महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि यह मामला जनहित से जुड़ा हुआ है और निर्णय की समीक्षा ज़रूरी है।

2006 का भयानक हादसा: 189 लोगों की मौत

11 जुलाई 2006 को मुंबई की वेस्टर्न लाइन पर चल रही लोकल ट्रेनों के सात फर्स्ट क्लास डिब्बों में एक के बाद एक सिलसिलेवार धमाके हुए थे।

इन धमाकों में 189 लोग मारे गए थे और 800 से अधिक लोग घायल हुए थे।

यह हमला भारत की लोकल ट्रेन प्रणाली पर अब तक का सबसे भीषण आतंकी हमला माना जाता है।

निचली अदालत ने सुनाई थी मौत की सजा

साल 2015 में विशेष मकोका कोर्ट ने 12 में से 5 आरोपियों को फांसी और 7 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।

कोर्ट ने तब इन सभी को षड्यंत्र, हत्या और आतंकी गतिविधियों का दोषी माना था।

लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलटते हुए कहा कि सबूतों और गवाहों में कई विरोधाभास हैं और जांच प्रक्रिया में गंभीर खामियां पाई गई हैं।

पूरी खबर यहां पढ़ें – 2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट केस: हाईकोर्ट ने सभी 12 आरोपी किए बरी, 19 साल बाद आया बड़ा फैसला

क्या था बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला?

हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि प्रॉसीक्यूशन (सरकारी पक्ष) आरोपियों के खिलाफ ठोस और विश्वसनीय साक्ष्य पेश करने में असफल रहा।

कोर्ट ने कहा कि संदेह का लाभ आरोपियों को देना होगा और यह विश्वास करना कठिन है कि उन्होंने ही अपराध किया है।

इसलिए, सभी को बरी किया जाता है और यदि वे किसी अन्य केस में वांछित नहीं हैं, तो उन्हें तुरंत रिहा किया जाए।

कोर्ट के आदेश तहत अब इस केस के सभी 12 आरोपी आजाद घूमेंगे।

हाईकोर्ट ने किन 5 कारणों से आरोपियों को बरी किया?

1 – विस्फोटकों का सही प्रकार नहीं बताया 

पुलिस ने आरडीएक्स, डेटोनेटर, कुकर, सर्किट बोर्ड और नक्शे जैसे सबूत जब्त किए, लेकिन इनका सीधा संबंध हमले से नहीं जोड़ पाए। जब्ती प्रक्रिया में भी सीलिंग नियमों का पालन नहीं किया गया।

2 – गैरकानूनी तरीके से शिनाख्त परेड

शिनाख्त परेड वरिष्ठ जांच अधिकारी द्वारा कराई गई, जिन्हें इसका अधिकार नहीं था। इससे गवाहों की पहचान को अदालत ने अमान्य कर दिया।

3 – बयान में देरी और विरोधाभास

कुछ गवाहों ने 100 दिन बाद बयान दिए, जो कोर्ट को संदिग्ध लगे। टैक्सी ड्राइवर की गवाही विश्वसनीय नहीं मानी गई, क्योंकि उसे आरोपी को पहचानने का अवसर ही नहीं मिला।

4 – गवाहों के बयान में विसंगतियां

एक गवाह ने दावा किया कि उसने आरोपियों को बम बनाते देखा, लेकिन बाद में कहा कि वह उस कमरे में गया ही नहीं था। गवाही में देरी, भ्रम और अस्पष्टता के चलते अदालत ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।

5 – इकबालिया बयानों पर सवाल

अदालत ने आरोपियों के कबूलनामों को खारिज कर दिया। सभी बयानों की भाषा और क्रम एक जैसी होने के कारण उन्हें संदेहास्पद माना गया। इन बयानों से पहले जरूरी कानूनी अनुमतियां नहीं ली गई थीं।

सरकारी वकील बोले- ये चौंकाने वाला फैसला

वरिष्ठ सरकारी वकील उज्जवल निकम जो 1993 मुंबई ब्लास्ट, 26/11 आतंकी हमले, गुलशन कुमार हत्याकांड और प्रमोद महाजन की हत्या जैसे मामलों में पैरवी कर चुके है।

उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले पर हैरानी जताते हुए कहा कि मैं इस चौंकाने वाले फैसले से दुखी हूं।

2006 में ट्रेन में हुए आरडीएक्स बम विस्फोट को उसी तरीके से अंजाम दिया गया था, जैसे मार्च 1993 में मुंबई में हुए सीरियल बम धमाकों को।

लेकिन तब टाडा एक्ट नहीं था, इसलिए, यह मामला आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा) के तहत चलाया गया था।

इसके तहत पुलिस ने कई इकबालिया बयान पेश किए लेकिन जांच में कुछ विसंगतियां सामने आईं।

अब जाने कौन हैं आरोपियों के वकील?

इस केस में आरोपियों की पैरवी 2023 में सेवानिवृत्ति के बाद उड़ीसा हाईकोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस एस. मुरलीधर ने की।

उड़ीसा से पहले वे दिल्ली, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में भी जज रह चुके हैं।

उन्होंने कोर्ट में तर्क दिया कि सभी इकबालिया बयान एक जैसे हैं, जिससे पुलिस की स्क्रिप्टिंग की आशंका होती है।

उन्होंने कहा कि कोर्ट को जांच की गुणवत्ता पर सवाल उठाना चाहिए, न कि केवल समान बयान देखकर संतुष्ट होना चाहिए।

19 साल बाद भी न्याय की तलाश जारी

बहरहाल, अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचेगा। महाराष्ट्र सरकार हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील कर चुकी है।

जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि हाईकोर्ट के निर्णय में कानूनी चूक हुई है या नहीं।

लेकिन, जो भी 19 साल बाद भी न्याय की तलाश जारी है।

बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले ने न्यायिक प्रक्रिया, जांच की गुणवत्ता और सबूतों की वैधता पर कई बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं।

वहीं, इस मामले सुप्रीम कोर्ट का रुख अब यह तय करेगा कि क्या वास्तव में साक्ष्य इतने कमजोर थे या फिर जांच और अभियोजन पक्ष अपने दायित्व में विफल रहा।

 

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