खंडवा लोकसभा सीट पर कांग्रेस के सामने अभी भी अरुण यादव ही बड़ा चेहरा हैं। पर वे लगातार चुनाव हारे और उनके करीबी दो विधायकों के भाजपा
में जाने से उनकी दावेदारी कमजोर हुई। कांग्रेस यदि सचिन बिरला या सुरेंद्र सिंह ठाकुर जैसे युवा विधायकों पर दांव खेलकर भाजपा को घेर सकती है।
अभी जब लोकसभा उपचुनाव की घोषणा भी नहीं हुई है, किन्तु निकट भविष्य में दोनों ही दलों को मध्यप्रदेश के पूर्वी निमाड़ में अपनी राजनीति को पटरी पर लाने की गंभीर कोशिश तो शुरू करनी ही होगी। यही वह निमाड़ क्षेत्र है, जहां पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को तगड़ा झटका लगा था और यहीं के दो कांग्रेस विधायकों ने दल बदलकर उपचुनाव में भाजपा को मजबूती प्रदान करके सारे गणित ही बदल दिये है ।
लगातार मात खा रही कांग्रेस को दमोह उपचुनाव से बदला लेने की हिम्मत तो आ गई, किन्तु कमलनाथ खंडवा लोकसभा सीट पर नये प्रयोग का कितना साहस जुटा पाते हैं, यह उनके अरूण यादव के साथ तालमेल पर निर्भर करेगा। अरूण यादव का खंडवा लोकसभा के सांसद के नाते कार्यकाल बेहतर ही कहा जा सकता है, खासकर उद्योग मंत्री रहते हुये।
इस नाते खंडवा लोकसभा सीट से उनकी उम्मीदवारी पर कांग्रेस की उम्मीदें टिकी हैं। जबकि स्वयं अरूण यादव बहुत उत्साहित नजर नहीं आते हुये भी सौम्य भाव से सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा अनेक गुटों में खंड-खंड नजर आ रही है और महत्वाकांक्षी नेता अपनी-अपनी उम्मीदवारी के लिये व्यक्तिगत स्तर पर प्रयासरत दिखाई दे रहे हैं।
विरासत की सियासत करने वाले अपने जाती विशेष के गणित को ऊपर से नीचे तक गले में उतारने के लिये समाज के मंच का उपयोग करने की कोशिश में लगे हैं जबकि अरूण यादव यदि खुद मैदान में ना उतरकर नये समीकरण साधते हुये किसी नये चेहरे को मैदान में उतारते हैं तो हालात बदल सकते हैं।
इस दृष्टि से देखा जाये तो कुछ विकल्प ऐसे भी हैं, जो कांग्रेस की राजनीति को नई ऊंचाइयों पर ले जा सकते हैं, जिसका लाभ 2023 के विधानसभा चुनाव में मिल सकता है। इसके लिये कमलनाथ और यादव के एकमत होने की उम्मीद अब भी कायम है।
यह प्रयोग ठाकुर शिवकुमार सिंह के परिवार के प्रति कांग्रेस का सम्मान प्रदर्शित करने के साथ- साथ एक राजनीतिक भूल सुधार भी कही जा सकती है। जिसके तहत बुरहानपुर के वर्तमान विधायक सुरेंद्र सिंह ठाकुर को कांग्रेस खंडवा लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतारकर भाजपा का वर्षों पुराना गणित बिगाड़ सकती है।
वैसे शेरा भैया अरूण यादव गुट के नहीं माने जाते हैं और उनके निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विधानसभा चुनाव में उतरने के पीछे यही गुटबाजी को ही मुख्य वजह माना जाता है, किन्तु 2018 के विधानसभा चुनावों की परिस्थितियों में अब तक बहुत कुछ बदल गया है।
नर्मदा से लेकर ताप्ती तक बहुत पानी बह चुका है। अरूण यादव के दो सबसे विश्वसनीय विधायक दल-बदलकर यादव का न केवल विश्वास तोड़ चुके हैं, बल्कि पार्टी में उनकी साख को भी बट्टा लगा चुके हैं इसलिए बदली हुई परिस्थितियों में ठाकुर सुरेंद्र सिंह शेरा कांग्रेस के नये तारणहार बन सकते हैं। यह संभावना इसलिये भी प्रबल प्रतीत होती है कि शेरा ठाकुर की कमलनाथ से निकटता सरकार बदलने के बावजूद कायम है।
खंडवा लोकसभा सीट के होने वाले उपचुनाव में एक और वर्तमान कांग्रेसी विधायक को मजबूत प्रत्याशी के रूप में देखा-परखा जाने के संकेत मिले हैं। नये जातीय समीकरणों में सबल साबित होती गणितीय राजनीति में इस युवा विधायक को भी वजनदार विकल्प के तौर पर कांग्रेस के कमलनाथ खेमों में पढ़ा जा रहा है।
बड़वाह विधानसभा से भाजपा के झंडे को रिकाॅर्ड मतों से उखाड़ने वाले युवा नेता सचिन बिरला की गिनती निमाड़ की राजनीति में उन सफल नेता में होती है जिसने अपनी सक्रियता के बल पर न केवल कांग्रेस को बल्कि भाजपा को भी प्रभावित किया है।
यही कारण है कि संघ सहित भाजपा का एक बड़ा गुट सचिन को अपने पाले में लाने को आतुर दिखाई देता है। गुर्जर समाज के युवा नेतृत्व को अपनी संगठन क्षमता से निरंतर एकजुट रखने में कायम रहने वाले सचिन बिरला के लिये बड़वाह, मांधाता, बुरहानपुर और खंडवा विधानसभाओं का एक बड़े जातीय वोट बैंक की ताकत है जो कांग्रेस के किसी और नेता के पास नहीं है।
सचिन बिरला अपने साहसिक निर्णय के दम पर ही वर्तमान में विधायक बन सके हैं वरना कांग्रेस में टिकट पाने के लिये किसी गॉडफादर के अच्छे दिन आने को ही अनिवार्य योग्यता मानी जाती है। 2013 में कांग्रेस से टिकट ना मिलने पर सचिन बिरला ने निर्दलीय चुनाव लड़कर अपनी पकड़ को साबित किया था।
शेरा और बिरला में समानता भी कम नहीं
– दलीय राजनीति को धता बताकर निर्दलीय चुनाव लड़ना भी वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में दुस्साहस ही है, अपने दम पर राजनीति करने की यही समानता शेरा और बिरला को भविष्य के लोकसभा चुनाव का दावेदार होने के योग्य भी बनाती है।
– इन दो मजबूत दावेदारों की राह में अड़चन भी समान ही है, वह यह कि ये दोनों ही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव के कम और कमलनाथ के अधिक विश्वसनीय माने जाते हैं।
– शेरा और बिरला के लिये यह भी समान अनुकूलता ही है कि ये दोनों ही जातीय समीकरणों के मजबूत आधार पर खड़े नेता हंै।
– दोनों ही धार्मिक छबि वाले होते हुये भी सब धर्मों में समान पकड़ रखने वाले नेता भाजपा को जातिवाद के जहरीले शिकंजे को तोड़कर विकासवाद को अपनाने का मौका है तो कांग्रेस के लिये यह अपने खोते हुये अस्तित्व को बचाने का एक अवसर है।
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