श्रवण गर्ग (वरिष्ठ पत्रकार )
‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म को व्यापक रूप से देखना और दिखाया जाना चाहिए। इसे देखना उतना ही अनिवार्य हो सकता है जितना कि एक कोविड वैक्सीन।
1989-90 में वीपी सिंह सरकार लाने के लिए वोट देकर पचास की उम्र पार करने वालों से शुरू किया जा सकता है।
ऐसा इसलिए क्योंकि कहानी इस समय की केंद्र सरकार से जुड़ी है। देश की करोड़ आबादी को बांटे जाने वाले मुफ्त अनाज के साथ एक फिल्म का टिकट भी मुफ्त दिया जा सकता है।
चुनावी रैलियों में जुटने वाले दर्शकों की भीड़ की तरह पार्टी भी दर्शकों को सिनेमाघरों में लाने की व्यवस्था कर सकती है। (फिल्म के अंतिम भाग में नायक कृष्ण को भी चुनावी रैलियों के नेताओं की तरह कश्मीर के गौरवशाली हिन्दू अतीत को संबोधित करते दिखाया गया है। )
फिल्म को बिना देखे आलोचना करने वाले देश की हकीकत से रूबरू होने को तैयार हैं। सच्चाई यह है कि धीमा जहर हमारी रगों में है।
अगर कानून और सरकार इजाजत दे तो इस पद्धति की सारी ‘फाइलें’ उन सभी बच्चों को भी दिखानी चाहिए जो ‘जागरुकता’, ‘हम पांची एक डालके’ और ‘दोस्ती’ को ध्यान में रखते हुए बड़े होकर देश की मूल संस्कृति बनना चाहते हैं।
ये बच्चे हिंसा के लिए खुद को तैयार करना शुरू कर देंगे फिल्म में अपनी ही उम्र के ‘शिवा’ का लम्बा सीन आतंकवादी द्वारा बेरहमी से मारे जाने पर देखते हैं और नफरत। (कहा जाता है कि सेंसर बोर्ड ने फिल्म को बिना एक भी कट के प्रदर्शन के लिए प्रमाणित कर दिया। विवेक अग्निहोत्री भी सेंसर बोर्ड के सदस्य हैं। )
फिल्म में एक डायलॉग है कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान खुद पर हुए अत्याचार के बारे में यहूदी दुनिया को क्यों नहीं समझा पाए? अब ‘The Kashmir Files’ को यहूदी देश इजराइल के साथ-साथ जर्मनी सहित यूरोप के सभी देशों में दिखाया जा सकता है जहां 1941 से ’45 के बीच साठ लाख यहूदियों की हत्या हुई थी। (इनके बचने के आंकड़ों की कल्पना ही की जा सकती है) लेकिन फिर भी इस विषय पर उन देशों में ‘Schindlers List’ और ‘The Pianist’ जैसी मानव फिल्में बन रही हैं। (कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति कथित तौर पर 1989 के बाद घाटी में मारे गए पंडितों की संख्या 650 दिखाती है, आरएसएस 1991 रिहाई 600 और केंद्रीय गृह मंत्रालय 219)।
‘द कश्मीर फाइल्स’ पर सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर नाराजगी व्यक्त करने वाला समाज का वर्ग वही है जो देर से धार्मिक नगरी हरिद्वार में आयोजित ‘धर्म संसद’ में एक समुदाय के खिलाफ दिए गए भाषणों से उत्साहित भी था ।
इस वर्ग को नहीं पता कि जब हरिद्वार स्थित गंगा में सांप्रदायिक सौहार्द की अस्थियां भंग की जा रही थीं, तब मुंबई में ‘फाइलों’ के प्रिंट तैयार हो रहे होंगे। हाल ही में हरिद्वार में आयोजित एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने ऐसा ही सवाल पूछा कि शिक्षा के भगवाकरण में क्या गलत है?
मानना पड़ेगा इनके सवाल का जवाब हमारे पास नही है और अगर शिक्षा के भगवाकरण में कोई दोष नहीं है तो फाइलों के भगवाकरण में क्या किया जा सकता है? इस फिल्म को भी इसी तरह देखना चाहिए।
‘द कश्मीर फाइल्स’ के एक सीन में टीवी पर एक इंटरव्यू दिखाया गया है जिसमें एक इस्लामिक आतंकवादी नेता जब एक सरकारी टीवी चैनल का रिपोर्टर सवाल पूछता है कि उसने उस व्यक्ति की हत्या की क्योंकि वह कश्मीरी पंडित था, तो वह कुछ ऐसा जवाब दे सकता है I वह ‘नहीं, उसे इसलिए पीटा गया क्योंकि वह एक आरएसएस का आदमी था।
‘ अगर दर्शक संवेदनशील नागरिक बनकर फिल्म के हर फ्रेम को शौक से देखे और बात-बात बोलने वाले किरदारों के चेहरे पर मेकअप के थप्पड़ के नीचे दबी त्वचा के रंग से मिलान करने की कोशिश करे तो ही बात होगी पता है कि दो घंटे पचास मिनट या पांच सौ कल के लिए हो सकते हैं एक शूटिंग हो चुकी है और ऐसी सौ फिल्में सिर्फ एक आर्डर पर देशभर में प्रदर्शित की जा सकती हैं।
बुद्धिजीवियों की सोच अभी बाकी है जेएनयू लाइब्रेरी जैसी जगह से जो इस फिल्म की सफलता को रोज कैश के कलेक्शन में गिनने में अपना और देश का कीमती समय बर्बाद कर रहा है।
मेरी तरह ‘द कश्मीर फाइल्स’ देखने वाले कुछ और दर्शकों को शायद एहसास हो गया होगा कि महेश भट्ट की फिल्म ‘सारांश’ में साल 1984 में (पंडितों के साथ त्रासदी से 6 साल पहले) एक बूढ़े पिता का चेहरा अक्सर दिखाया जाने वाला है।
‘फाइल्स’ के बूढ़े बाप की तरह ही उस फिल्म में स्कूल टीचर बनाया गया है। वह अपने एक बेटे की मौत (न्यूयॉर्क में एक डकैती की घटना) के सदमे से बाहर आने की कोशिश भी करता है। मैं अक्सर सोचता था कि बूढ़े टीचर ने दोनों फिल्मों में अपना बेटा खोया है लेकिन ‘फाइलें’ ‘सारांश’ जैसी असली क्यों नहीं लगती? सिनेमा हॉल में हर दर्शक ‘सारांश’ को देखते हुए रो रहा था जबकि ‘फाइल्स’ का इकलौता अभिनेता पुराना था।
हादसा ये है कि दोनों बार एक ही एक्टर ने बुजुर्ग का किरदार निभाया है। !
‘द कश्मीर फाइल्स’ अगले भारत का ट्रेलर है और अब बॉलीवुड के दो भागों के अरबों चेहरे हैं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ को इस दृष्टि से भी देखा जा सकता है कि जो काम पच्चीस करोड़ की आबादी वाले क्षेत्र में महीनों के संभावित प्रयासों के बावजूद संभव नहीं हो सका, सिर्फ तीन घंटे की फिल्म शांतिपूर्ण ढंग से पूरे देश में संभव हो गई ।
आखिरकार सवाल ये रह ही जाता है कि फिल्म बनाने में इतनी मेहनत के बाद भी कश्मीरी पंडितों को घाटी में लौटने की खुशी मिलेगी या नहीं? एक और सवाल भी ! विवेक अग्निहोत्री पीड़ितों को फिल्म की स्क्रिप्ट पढ़कर ही ‘द कश्मीर फाइल्स’ बनाना चाहते तो कितने प्रतिशत अपनी स्वीकृति दे पाते?