क्या नेता की अपील से देश के लोग कोई चीज खाना
कम-ज्यादा कर सकते हैं?
सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )
जापान के प्रधानमंत्री ने 2 दिन पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस लेकर देश के लोगों से अपील की कि वे अधिक से अधिक दूध पिएं, इसके अलावा वे पकाने के काम में भी दूध का अधिक इस्तेमाल करें क्योंकि वहां पैदा होने वाला दूध खराब होने की नौबत आ रही है।
कोरोना की वजह से लोगों का बाहर घूमना, होटलों में खाना कम हो रहा है, और दूध की खपत घट गई है, लेकिन दूध पैदा होना पहले की तरह जारी है तो उसके खराब होने की नौबत न आए इसलिए जापान सरकार के मंत्री कहीं प्रेस कॉन्फ्रेंस में दूध पीते दिख रहे हैं, तो कहीं प्रधानमंत्री लोगों से दूध का अधिक इस्तेमाल करने की अपील करते दिख रहे हैं। लोगों से नाश्ते के तौर तरीके में बदलाव लाने के लिए कहा जा रहा है ताकि दूध का अधिक इस्तेमाल हो सके।
यह एक बड़ी अटपटी नौबत है कि देश के प्रधानमंत्री को किसी एक चीज को अधिक खाने-पीने के लिए अपील करनी पड़ रही है। हालांकि हम हिंदुस्तान में बहुत से राज्यों में दूध की मांग कम होने पर या उसका उत्पादन बढऩे पर दूध कारखानों को देखते हैं कि वे किस तरह उसे सुखाकर दूध पाउडर बना लेते हैं और बाद में मांग बढऩे पर उसे घोल कर, दूध बनाकर लोगों के घर भेजते हैं, और बड़ी आसानी से उत्पादन और मांग के इस फासले को पाट लिया जाता है।
पता नहीं जापान में ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है क्योंकि वह तो हिंदुस्तान के मुकाबले भी बहुत अधिक विकसित और उच्च तकनीक वाला देश है, लेकिन हम इस खबर के एक छोटे से पहलू पर लिखने जा रहे हैं, इसलिए जापान की दिक्कत की बारीकियों से यहां कोई अधिक वास्ता नहीं है। यह समझने की जरूरत है कि जब किसी देश में किसी चीज की जरूरत से अधिक पैदावार हो जाती है या जरूरत से बहुत कम, तो देश के नेता अपील करके उस नौबत को सुधारने में कैसे मदद कर सकते हैं।
अब हिंदुस्तान में हर बरस दो-चार बार कभी प्याज की कमी हो जाती है, तो कभी टमाटर के दाम आसमान पर पहुंचते हैं। खाने के तेल के दाम तो आसमान पर ही टंग गए हैं जो वहां से नीचे उतरने का नाम नहीं लेते। यही हाल पेट्रोल और डीजल का भी है।
लेकिन पूरे देश में कोई प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, या दूसरे नेता लोगों के सामने कोई मिसाल पेश करते नहीं दिखते कि किस तरह वे अपने काफिले की कारें कम करें, अपनी कार के आकार को कम करें, अपने अफसरों के ईंधन की खपत को घटाएं, या लोगों को खाने-पीने के सामानों के लिए यह सुझाव दें कि जिन दिनों किसी चीज की कमी हो रही है उन दिनों कुछ दिनों के लिए बिना प्याज और टमाटर भी लोग काम चला सकते हैं, तो चलाएं।
ऐसी अगर कोई अपील हो और लोग अगर इस तरह उसे मानें, तो हो सकता है कि चीजों की कमी भी खत्म हो जाए और जो हाय-तौबा मीडिया में सामने आता है वह भी कुछ घट जाए।
यह तो हुई सतह पर तैरती हुई खबरों की बात, लेकिन इनसे परे केंद्र और राज्य सरकारें दूध और फल सब्जी जैसी चीजों के लिए मार्केटिंग का ऐसा एक नेटवर्क खड़ा करने में भी मदद कर सकती हैं जिनमें बिचौलियों की जेब में जाने वाली मोटी रकम किसान और ग्राहक के बीच बंट जाए।
अभी सब्जी उगाने वाले लोगों के बारे में यह पता लगता है कि उन्हें कई बार तो सब्जी तुड़वाकर खेत से बाजार तक लाने में जो खर्च आता है उतना पैसा भी बाजार से नहीं मिलता। दूसरी तरफ ग्राहक लगातार इस बात की शिकायत करते हैं कि सब्जियां बहुत महंगी होती जा रही हैं।
तो यह पैसा जाता कहां है ? सब्जी मंडियों के आढ़तियों की जेब में अगर इतना बड़ा हिस्सा जा रहा है तो केंद्र और राज्य सरकारों को फल-सब्जी-दूध के ऐसे बाजार बनाने चाहिए जहां पर किसान बेचने बैठ सकें। डेयरी के लोग सीधे दूध बेच सकें, या फल-सब्जी उगाने वाले लोग मंडी में सीधे सामान बेच सकें। ऐसा होने पर एक तरफ तो किसी सामान की उपज बढऩे पर उसकी खपत की अपील भी की जा सकती है और उसकी कमी होने पर उससे कुछ दिन परहेज करने की भी।
हिंदुस्तान में बहुत से लोकप्रिय नेता अभिनेता हैं, खिलाड़ी और चर्चित लोग हैं जिनकी बात का लोगों पर बड़ा असर होता है और वे अगर एक सार्वजनिक अपील करें तो उन्हें मानने वाले लोग अपनी रोज की जिंदगी में कुछ चीजों की खपत को कम या अधिक भी कर सकते हैं।
लोगों को याद होगा कि बहुत पहले जब हिंदुस्तान की कोई जंग चल रही थी तो लोगों ने एक वक्त का खाना छोड़ा था, और एक प्रधानमंत्री की अपील पर देश की महिलाओं ने फौज के लिए अपने गहने उतारकर दे दिए थे। जिन लोगों को लोकप्रियता हासिल रहती है या जिनकी बातों को मानने वाले लोग बड़ी संख्या में रहते हैं उन्हें कई किस्म के नेक कामों के लिए अपने असर का इस्तेमाल करना चाहिए।
आज दिक्कत यह हो गई है कि खेल और सिनेमा जैसे चकाचौंध शोहरत वाले सितारे मोटी रकम लिए बिना समाजसेवा की कोई ट्वीट भी नहीं करते। दूसरी तरफ नेता अपने सारे असर को वोटों की शक्ल में भुनाते हुए अपनी लोकप्रियता भी खो बैठते हैं और उनकी बातें मोटे तौर पर बेअसर होने लगती हैं।
जो उनके समर्थक रहते हैं उनके बीच भी उनका असर कम होता है। ऐसे में यह देखना होगा कि क्या इन लोगों की बातों का लोगों पर ऐसा असर हो सकता है कि लोग अपना खाना पीना बढ़ा लें या घटा दें? हर देश प्रदेश में ऐसे लोग रहते हैं जिनकी बातों को लोग गंभीरता से लेते हैं, और ऐसे लोगों को अपने असर का समाज के भले के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। कुछ बरस पहले तबाही का शिकार हुए उत्तराखंड के लोगों के बनाये सामान खरीदने के लिए ऐसे अपील हुई थी।