पंकज मुकाती
पिछले सप्ताह आठ राज्यों के राज्यपाल बदले गए। इसमें मध्यप्रदेश में शामिल है। सवाल वही है कि आखिर महामहिम की अब सुनता कौन है। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीश धनगढ़ से शपथ के तत्काल बाद दो-दो हाथ करने की मूड में दिखती हैं। बाद में वे राज्यपाल को एक मामले में आपराधिक आरोपी बताकर हटाने की मांग तक कर डालती है।
बिहार में राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री रहते राज्यपाल महोदय के प्रति जिन शब्दों का उपयोग किया वे लिखे भी नहीं जा सकते। महाराष्ट्र के राज्यपाल कोश्यारी ने कोरोना के दौर में शराब दुकाने खुलने और मंदिर बंद रहने पर सवाल उठाया। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को तंज भरी चिट्ठी लिख डाली। ये भी पूछ लिया- क्या आप हिंदुत्व छोड़कर धर्मनिरपेक्ष हो गए हैं।
जवाब में ठाकरे ने लिखा-मुझे आपसे हिंदुत्व के सर्टिफिकेट की जरुरत नहीं है। आखिर इतनी तल्खी क्यों हैं ? क्या राज्यपाल अपनी खुद की शपथ और गरिमा भूलते जा रहे हैं।
पूरे मंत्रिमंडल और मुख्यमंत्री को पद, गरिमा और गोपनीयता की शपथ दिलाने वाले महामहिम के प्रति ऐसा अनादर का दौर क्यों है। इसका जवाब वे खुद भी जानते हैं।
लगातार राज्यों की चुनी हुई सरकारों के काम में बाधाएं अब आम हो गई है। कुछ राज्यपाल तो केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष या विपक्ष जैसा व्यवहार राज्य सरकारों के साथ करने लगे हैं।
राज्यपाल का अपने राजनीतिक लाभ के इस्तेमाल की कहानी नई नहीं है। जो लोग आज मोदी सरकार को तानाशाह कहते हुए राज्यपाल जैसे पद के राजनीतिक दुरुपयोग की आवाज उठाते हैं, उनके दौर में भी हालात ऐसे और इससे भी बदतर रहे हैं।
आज चुनी हुई सरकारें बर्खास्त करना आसाननहीं। ममता बनर्जी की सरकार बर्खास्त होगी, पश्चिम बंगाल राष्ट्रपति शासन लगेगा। अब केंद्र सरकारों के लिए ऐसा संभव नहीं। पर कांग्रेस ने ऐसा अनेकों बार किया।
संविधान लागू होने के बाद से राज्यपाल की सिफारिश पर किसी राज्य की सरकार को भंग करने और वहां राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के 100 से भी ज्यादा उदाहरण हैं लेकिन इनमें से गिने-चुने ही ऐसे होंगे जब वास्तव में संवैधानिक संकट की वजह से ऐसा करने की नौबत आई हो।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के 15 साल के कार्यकाल में तो 50 बार राष्ट्रपति शासन लगा जो एक रिकॉर्ड है। ऐसे में राज्यपाल की इस व्यवस्था में कोई जरुरत है भी या नहीं इस पर विचार किया जाना चाहिए। क्योंकि महामहिम की अब कोई सुनता ही नहीं।
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