कमलनाथ से ज्यादा तो शिवराज और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मंच से चीख-चीखकर अपमानित महिला को सामने रखकर उसको उन शब्दों से वोट के लिए नवाजा। क्या उसी शब्द के लिए सिंधिया और शिवराज पर भी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। वे सत्ता के आसमान में हैं इसलिए स्टार बनकर टंगे रहेंगे।
पंकज मुकाती (राजनीतिक विश्लेषक )
चुनाव आयोग भी चुनाव में सीधे-सीधे कूद पड़ा है। उसके एक फैसले ने पूरी निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। एक ही जुर्म में एक को सजा दूसरे को बिना सुनवाई बरी करना। क्या ये समान न्याय है। आयोग ने कांग्रेस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ से स्टार प्रचारक का दर्जा छीन लिया।
जिस शब्द को अपमान का प्रतीक मानकर ये फैसला सुनाया गया। वो पूरे नाम के साथ कमलनाथ से ज्यादा तो शिवराज और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मंच से चीख-चीखकर उस अपमानित (आयोग की नजर में ) महिला को सामने रखकर उसको उन शब्दों से वोट के लिए नवाजा। क्या उसी शब्द के लिए सिंधिया और शिवराज पर भी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। वे सत्ता के आसमान में हैं इसलिए स्टार बनकर टंगे रहेंगे।
चुनाव आयोग को उन सभी नेताओं पर कार्रवाई करनी चाहिए जिन्होंने वोट पाने के लिए इस मुद्दे पर जमकर राजनीति की। जब हम महिला और बाल अपराध में किसी महिला का नाम नहीं लेते। दुबारा उसके नाम के साथ उस शब्द का जिक्र नहीं करते ऐसे में ऐसे सभी नेता दोषी क्यों नहीं? क्या आयोग भी चुनाव आयोग के बजाय कुछ लोगो का चुना हुआ आयोग बनना चाहता है।
इस वक्त मध्यप्रदेश की राजनीति में आयटम गीत गाये जा रहे हैं। हर मंच पर, रैली की शुरुवात और अंत इसी उच्चारण से हो रही। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की जुबान एक बार फिसली, पर भाजपा के नेता इस शब्द को एक दिन में लाखों बार उछाल रहे हैं? कमलनाथ ने किसी का नाम नहीं लिया। पर भाजपा में शिवराज से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक नाम ले लेकर इस मामले की पीड़िता को सामने खड़ा करके यही शब्द दोहराते रहे है।
दरअसल, अपमान का सिलसिला कौन चला रहा है? खुद भाजपा। कानून और नैतिकता भी ये कहती है कि जो भी शब्द किसी महिला के लिए अमर्यादित, असम्माननीय और उसकी अस्मिता के खिलाफ हैं वे दोबारा न कहे जाएं। उस महिला के पक्ष में भी नहीं। उस पीड़ित महिला का नाम लेना भी उसके जख्म को कुरेदना उसे प्रताड़ित और सार्वजनिक करना है।
शिवराज सिंह चौहान और ज्योतिरादित्य सिंधिया इतने कमजोर और उपलब्धिविहीन हो गए हैं कि एक महिला की आड़ में जीतने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल, भाजपा ने एक महिला को सत्ता प्राप्ति का मुद्दा बना लिया। सम्मान की बात तो सिर्फ दिखावा है, पूरी कोशिश है इस मामले को निर्लज्जता से उछालना। भले इसमें उस महिला का समाज में मज़ाक बनता रहे।
प्रदेश में राजनीतिक लाभ के लिए ये लाखों लोगों तक क्यों पहुंचाया जा रहा है। ये भी एक भ्रष्ट और निर्लज्ज आचरण है। ये आचरण वो लोग कर रहे हैं, जो जनप्रतिनिधि, कानून के जानकार और जिम्मेदार पदों पर हैं।
तमाम मामलों में स्वतः संज्ञान लेने वाली अदालतें, मानव अधिकार आयोग, महिला आयोग और चुनाव आयोग अपने तरफ से इस पर कोई रोक का कदम नहीं उठाएगा? क्या ये सब संस्थांयें भी सत्ता के लिए चल रही इस अपमान की श्रंखला को देखते रहेंगे?
सवाल ये भी है कि स्त्री के मान-सम्मान को चुनावी राजनीति में क्यों घसीटा जा रहा है। अफ़सोस वोट और चुनाव की जीत के लिए एक नारी के सम्मान की लड़ाई की आड़ में उस नारी को और पीड़ित साबित करने की होड़ मची है। सबसे बड़ी बात ये है कि ये सारे लोग चुनावों के अलावा ऐसे मुद्दों पर चुप ही रहते हैं।
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हाथरस में एक दलित लड़की का रात के अँधेरे में बिना माँ-बाप परिवार की सहमति के अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। तब ये समूह ख़ामोशी की चादर ओढ़ लेता हैं। उत्तरप्रदेश में बलात्कार के आरोपी अपने विधायक कुलदीप सेंगर और पूर्व सांसद स्वामी चिन्मयानंद को बचाने में जान लगा देती है वो पार्टी आज एक शब्द से जाग्रत हो उठी। क्योंकि चुनाव का वक्त है।
मध्यप्रदेश पंद्रह साल महिलाओं के प्रति अत्याचार और बलात्कार की घटनाओं में देश में नम्बर वन रहा उसी सरकार के मुखिया का मौन धरना और अफ़सोस भी कई सवाल खड़े करता है। क्या राजनीति में जो महिला है, जो मंत्री है उसके सम्मान के लिए ही आपको मुखिया चुना गया है। या सिर्फ मुखिया बने रहने के लिए ही ये मुद्दा आप उठायेंगे।
जिस महिला के अपमान पर ये सब मौन रखा जा रही है। उनके नाम पर पिछले चुनाव में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि ये खाने तक तो ठीक है इन्हें अपना क्षेत्र मत सौंप दीजिये।तब वे कांग्रेस प्रत्याशी थीं इसलिए सबने जमकर इस बयान की चाशनी का मजा लिया। आज वे अपने दल में हैं तो उनका सम्मान याद आया। किसी भी स्त्री का सम्मान उसकी राजनीतिक जमीन को देखकर मत कीजिये।
चुनाव आयोग को अपने फैसलों को राजनीतिक दल और विचारधारा से अलग रखना चाहिए। सबको समदृष्टि से देखना ही आयोग की पहचान है। वरना दूसरी सरकारी एजेंसियां जो पिंजरे में कैद तोता कहलाती है, वही चुनाव आयोग कहलायेगा। आयोग के हाल के फैसलों ने नैतिकता को नौटंकी बना दिया और जनता को आयटम।
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