कोरोना से मृत पति के शव को पांच फ़ीट दूरी से कांच के पीछे से देखकर ‘चाँद सी मेहबूबा’ गीत याद करके रो पड़ी पत्नी का वीडियो देखिये
विभव देव शुक्ला
इस वायरस का स्वभाव भी कितना क्रूर है कि चूड़ियाँ तोड़ने तक की गुंजाइश नहीं छोड़ता। ऐसे किसी नज़ारे के सामने एक महिला की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है लेकिन इस बीमारी के बाद भावनाओं की अंतिम राशि भी ख़र्च नहीं की जा सकती है। ऐसा वायरस जो महिला से लाश पर अपना अंतिम हक़ जताने का मौका भी छीन लेता है।
वीडियो में एक शख़्स है जिसकी कोरोना वायरस से मौत हो चुकी है। वहाँ मौजूद उस शख़्स की पत्नी लगातार एक मिनट तक बोलती है, बोलने के बाद ऊपर लिखा हुआ पहला गाना गाती है और उसके बाद दूसरा। अपने 35 साल के पति बाज़ीर अहमद के लिए, इस आस में कि शायद बातों के सहारे लाश में ज़िन्दगी लौट आए।
पत्नी वीडियो की शुरुआत में कहती है कि “यह लोग समझ नहीं रहे हैं बीवी सबसे ज़्यादा क़रीब होती है। कह रहे हैं कि तुम्हें कोरोना हुआ है, पागल हो गए हैं सब के सब। तुम्हें कोरोना हुआ होता तो मुझे भी होता क्योंकि मैं बीवी हूँ तुम्हारी, हमारे बच्चों को भी होता। कुछ दिन पहले ही तो हम बात कर रहे थे, तब तक सब सही था।”
गाना गाने के बाद पत्नी खुद उस किस्से का ज़िक्र करती है जब पति ने उसे पहली बार देखा था। दोनों के बीच ज़िन्दगी का सबसे क़ीमती रिश्ता तय हुआ था, पति पहली बार लड़की के पिता से मिलने गया था। कहानी को क़िरदार मिले और पल भर में एक कहानी हक़ीक़त में तब्दील हो गई थी।
इतना कुछ बताते हुए पत्नी की आवाज़ लड़खड़ाती नहीं और न ही गला भारी होता है। आवाज़ में भरोसा है, जिस भरोसे की नींव अवसाद/निराशा से भरी हुई है, जिस आवाज़ में वेदना से पहले अस्थिरता समा गई है। न जाने कितने मज़बूत मन की ज़रूरत पड़ती होगी मृत्यु के बाद उम्मीद बनाए रखने के लिए।
महामारी के बाद दुनिया बहुत बदलने वाली है, लोग ज़िन्दगी की कीमत भले न समझें लेकिन मौत का खौफ ज़रूर महसूस कर पाएंगे। प्रकृति संतुलन बनाती है पर यह संतुलन मानवीय इतिहास का सबसे महँगा संतुलन साबित हो रहा है। वायरस इस बात की नज़ीर है कि मौत कितनी असल होती है, न ज़रा ज़्यादा और न ही ज़रा कम।
पिछले कुछ सालों में मैंने ख़ुद कई मौतों को बहुत क़रीब से देखा। मृत शरीर धुलने से लेकर, शरीर पर नए कपड़े चढ़ाने तक, कांधा देने से लेकर शरीर पर लकड़ियाँ रखने तक और जलते हुए पैर के अंगूठे से लेकर, विसर्जित की जाने वाली अस्थियों तक। लेकिन अफ़सोस ऐसा कभी महसूस नहीं किया जैसा बीते कुछ दिनों में हुआ है।
इन मौतों के दुःख में ध्वनि थी, दुःख नज़र आता था, दुःख बांटा जा सकता था लेकिन फ़िलहाल की स्थितियाँ अलग हैं। अभी की मौतों से पनपे दुःख में अंधेरा है, इस अंधेरे का आधार ही अवसाद है, इन मौतों में आवाज़ नहीं है बल्कि अँधेरा चीरता हुआ मौन है। कहावत है कि ‘हर तरह के समय की उम्र होती है, सब गुज़र जाता है’।
भले समय ख़र्च होता था पर हम मौत को स्वीकारना सीख रहे थे लेकिन इस महामारी के बाद प्रकृति हमें सब कुछ नए सिरे से सिखा रही है। हम बंद हैं इसलिए हो रहे बदलावों को देख नहीं पा रहे हैं, जिस दिन रास्तों पर होंगे बहुत कुछ बदला चुका होगा। पता नहीं बदलाव कैसे होंगे लेकिन हमें उन बदलावों के तैयार रहना है, ‘समय कठिन है पर गुज़र जाएगा।’
(ये वीडियो उत्तरप्रदेश के बरेली का है, जिस शख्स की मौत हुई वो राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग की टीम में था,और कोरोना पीड़ितों के इलाज में लगा हुआ था )
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