Tharoor Vs Muraleedharan

Tharoor Vs Muraleedharan

शशि थरूर अब हमारे नहीं रहे…, जानें केरल कांग्रेस के सीनियर नेता के. मुरलीधरन ने ऐसा क्यों कहा?

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Tharoor Vs Muraleedharan: कांग्रेस के भीतर एक बार फिर मतभेद की आंच तेज हो गई है।

वरिष्ठ नेता और सांसद शशि थरूर के बयान और रुख पर पार्टी में अंदरूनी कलह गहराती जा रही है।

केरल से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता के. मुरलीधरन ने हाल ही में एक तीखा बयान देते हुए कहा कि थरूर अब “हमारे नहीं रहे”।

मुरलीधरन ने यह तक कह दिया कि जब तक थरूर राष्ट्रीय सुरक्षा पर अपनी राय नहीं बदलते, उन्हें तिरुवनंतपुरम में पार्टी के किसी भी कार्यक्रम में नहीं बुलाया जाएगा।

यह टकराव केवल दो नेताओं के बीच नहीं, बल्कि कांग्रेस के भीतर विचारधारा और नेतृत्व लेकर जारी खींचतान का एक बड़ा प्रतीक बन चुका है।

देश पहले या पार्टी? थरूर के बयान पर विवाद

थरूर ने कोच्चि में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि देश पहले आता है, पार्टी उसके बाद।

पार्टियां देश को बेहतर बनाने का माध्यम हैं। अगर देश ही नहीं बचेगा, तो पार्टियों का क्या मतलब?

इस बयान के बाद कांग्रेस नेतृत्व और खासकर केरल इकाई में हड़कंप मच गया।

मुरलीधरन ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि शशि थरूर अब कांग्रेस के ‘हम’ में नहीं आते।

वे कांग्रेस वर्किंग कमेटी (CWC) के सदस्य जरूर हैं, लेकिन उनके हालिया बयान पार्टी की एकता को चुनौती दे रहे हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा पर ‘सरकारी समर्थन’ बना मुद्दा

विवाद की जड़ में थरूर का वह बयान भी है जिसमें उन्होंने हाल के समय में केंद्र सरकार और सशस्त्र बलों के कार्यों का समर्थन किया था, खासकर पहलगाम आतंकी हमले के बाद।

उन्होंने कहा कि जब राष्ट्रीय सुरक्षा की बात आती है, तो सभी दलों को एकजुट होकर काम करना चाहिए।

लेकिन कांग्रेस के कई नेताओं ने इसे पार्टी लाइन से भटकाव और ‘मोदी सरकार’ को बढ़ावा देने वाला रुख बताया।

मुरलीधरन का कहना है कि थरूर जब विपक्ष की बजाय सरकार की तारीफ करते हैं, तो वह कांग्रेस के सिद्धांतों के खिलाफ खड़े नजर आते हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि थरूर को अब यह तय कर लेना चाहिए कि वे किस पार्टी में हैं।

इमरजेंसी और इंदिरा गांधी पर टिप्पणी 

थरूर ने 10 जुलाई को मलयालम अखबार में इमरजेंसी पर एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने इंदिरा गांधी की आलोचना की थी।

उन्होंने लिखा कि इमरजेंसी को केवल इतिहास का काला अध्याय मानना काफी नहीं है, बल्कि इससे सीख लेना जरूरी है।

उन्होंने संजय गांधी के नसबंदी अभियान को ‘क्रूर और मनमाना’ बताया और लोकतंत्र की सुरक्षा पर जोर दिया। इस लेख ने पार्टी के भीतर और असहजता पैदा की।

मुरलीधरन ने थरूर के लेख पर भी सवाल उठाए और कहा कि अगर वह कांग्रेस के भीतर सहज नहीं महसूस कर रहे, तो उन्हें अपने राजनीतिक रास्ते स्पष्ट करने चाहिए।

मोदी की तारीफ और कांग्रेस की खीझ

थरूर ने 23 जून को अपने एक लेख में प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति और उनकी अंतरराष्ट्रीय सक्रियता की तारीफ की थी।

उन्होंने लिखा कि मोदी की ऊर्जा, गतिशीलता और जुड़ाव की इच्छा भारत के लिए वैश्विक मंच पर एक ‘संपत्ति’ है।

कांग्रेस पार्टी ने इस लेख को थरूर की “निजी राय” करार देकर खुद को इससे अलग कर लिया।

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी इस पर अप्रत्यक्ष तंज कसा और कहा कि कुछ नेताओं के लिए “मोदी फर्स्ट” है, जबकि हमारे लिए “इंडिया फर्स्ट”।

हालांकि, थरूर ने इन सभी आरोपों का जवाब देते हुए कहा था कि वे मानते हैं कि राजनीतिक मतभेद सीमाओं पर खत्म हो जाने चाहिए।

उन्होंने कहा कि भारत की विदेश नीति किसी एक दल की नहीं बल्कि राष्ट्रीय हितों से जुड़ी होनी चाहिए।

उन्होंने मोदी की तारीफ पर सफाई देते हुए कहा कि यह व्यक्तिगत ऊर्जा की प्रशंसा थी, न कि उनकी पार्टी या विचारधारा की।

कांग्रेस की दोराहे पर खड़ी राजनीति

यह विवाद केवल व्यक्तिगत टकराव का मामला नहीं है।

यह उस गहरे अंतर्विरोध को उजागर करता है जो आज कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी में मौजूद है।

जहां एक ओर कुछ नेता खुलकर विचार रखने की आजादी चाहते हैं।

दूसरी ओर पारंपरिक अनुशासन और ‘पार्टी लाइन’ के नाम पर विचारों को नियंत्रित करने की कोशिश होती है।

शशि थरूर कांग्रेस के उन नेताओं में हैं जिन्होंने अक्सर ‘बात कहने’ की आजादी का इस्तेमाल किया है, चाहे वह G-23 ग्रुप की बगावत हो या फिर उनके लेख और भाषण।

उनकी लोकप्रियता खासकर शहरी और युवा तबके में उन्हें पार्टी से ज्यादा ‘राष्ट्रीय नेता’ के रूप में स्थापित करती है।

फिलहाल शशि थरूर ने कांग्रेस छोड़ने जैसा कोई संकेत नहीं दिया है।

लेकिन पार्टी में उनके खिलाफ जिस तरह के सुर उठ रहे हैं, वह उनके लिए भविष्य में राह मुश्किल कर सकते हैं।

वहीं, ऐसे समय में जब कांग्रेस खुद को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही है।

पार्टी के भीतर मतभेदों को कैसे संभाला जाता है, यह उसका भविष्य तय कर सकता है।

कांग्रेस नेतृत्व के लिए भी यह एक कड़ा इम्तिहान है क्या पार्टी अपने भीतर असहमति के लिए जगह छोड़ती है या उसे दबा देती है?

 

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