भोपाल की राजनीतिक जंग को बारीकी से समझने के लिए जरूर पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार उमेश त्रिवेदी का लेख
भोपाल में कांग्रेस-प्रत्याशी पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की मौजूदगी ने प्रज्ञा ठाकुर के नाम पर हिंदू-मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण करने की राजनीतिक-पैंतरेबाजी को गड़बड़ा दिया है। भाजपा दिग्विजय को मुस्लिम-परस्त साबित करके हिंदू-मतों को बटोरने की रणनीति पर चल रही है। हिंदुत्व की गर्जनाओं के बीच राजनीति में प्रज्ञा ठाकुर का दाखिला भी इन्हीं अपेक्षाओं की बदौलत हुआ था। लेकिन नफरत की स्लेट पर नई इबारत लिखने के बावजूद हिंदुत्व की मेरिट और संघ की कसौटियों पर प्रज्ञा ठाकुर लड़खड़ाती दिख रही हैं।
प्रज्ञा ठाकुर का हिंदू-कार्ड इसलिए निष्प्रभावी लग रहा हैं कि दिग्विजय की हिंदू-आस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाना संभव नहीं है। भाजपाई हेट-कैम्पेन के ’सर्वकालिक-टारगेट’ दिग्विजय सिंह आस्तिक और आस्थावान हिंदू हैं। यह बात भाजपा नेता बखूबी जानते हैं। दिग्विजय की राजनैतिक और वैचारिक लड़ाई आरएसएस और भाजपा के खिलाफ है। वो मुखर होकर संघी-आतंकवाद के विरुद्ध बोलते रहे हैं। दिग्विजय सिंह राजनीतिक हैसियत के कारण भी भाजपा और संघ के टारगेट पर बने रहते हैं। संघ उन्हें आदतन हिंदू विरोधी कहता रहा है। इसीलिए मैदान में उतरते ही प्रज्ञा ठाकुर ने चुनाव को धर्म-युद्ध का नाम दिया था। दिग्विजय कहते हैं कि वो हिंदू है, और सनातन धर्म का पालन करते हैं। उनके मत में भाजपा के हिन्दुत्व की अवधारणाएं विभाजनकारी हैं। उनकी हालिया नर्मदा-यात्रा उन्हें हिंदू-विरोधी निरूपित करने वाले मोदी-भक्तों और उनके सोशल-मीडिया फौजियों के हेट-कैम्पेन का करारा जवाब है।
नर्मदा-यात्रा दिग्विजय की आस्थाओं का ताजा प्रसंग है, जो लोग उनसे पहले से परिचित हैं, वो मानते हैं कि उनकी हिंदू-आस्थाओं और धार्मिकता पर सवाल उठाना गैर-वाजिब है। 28 फरवरी 2001 याने 18 साल पहले नई दुनिया में मुख्यमंत्री के रूप में उनका इंटरव्यू प्रकाशित हुआ था। उस साक्षात्कार में धर्म, पूजा और कर्मकांड से संबंधित सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि-’’पूजा एक निजी व्यवहार है। हर व्यक्ति अपनी आस्थाओं के अनुसार ईश्वर को मानता है। मैं धार्मिक हूं। धर्म, पूजा, यज्ञ और कर्मकाण्ड में मेरी निष्ठा है। मेरी राय में लोगों को धार्मिक होना भी चाहिए। इससे हमें असीमित नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति मिलती है। मेरे आस्तिक होने के सरोकार मुझे बेहतर बनाते हैं। घर में हमारी मां निरंतर पूजा-पाठ और ईश्वर आराधना करती रहती थीं। यह संस्कार हमें उन्हीं से मिला है। हर व्यक्ति में आस्था और आध्यात्मिकता की डिग्री अलग होती है, जो देश, काल और परिस्थितियों से प्रभावित होती है। इसे थोपना या बदलना आसान नहीं है।’’
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी भाजपा में हिंदुत्व के नाम पर अतिवादी राजनीति के ऐसे अध्याय की शुरुआत है, जो संविधान की रगों में प्रवाहित लोकतंत्र को लहूलुहान करेगा। प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी सहज नहीं है। यह मध्यप्रदेश भाजपा की तासीर को भी आहत करती है और राज्य के विकास की अवधारणाओं के पंखों को कुतरती है।
जिन लोगों ने मप्र में भाजपा के प्रादुर्भाव को नजदीक से देखा है, अथवा जो भाजपा की प्रादेशिक त्रिमूर्ति कुशाभाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल और नारायण प्रसाद गुप्ता के राजनीतिक मतभेदों और तकरारों के गवाह रहे हैं, उनके लिए आलोक संजर को खारिज करके प्रज्ञा ठाकुर की स्थापना चौंकाने वाली घटना है। आलोक संजर की सियासी-मुअत्तिली पर प्रदेश के नेताओं की बेबस खामोशी और आत्म-समर्पण परिचायक है कि भाजपा में अब उन युवा नेताओं को भी मुअत्तिली के लिए तैयार रहना चाहिए, जिनकी आंखों में लाल धागे नहीं हैं। इसीलिए मोदी और अमित शाह ने प्रज्ञा ठाकुर की तुलना में शांत और विचारशील आलोक संजर को हिंदुत्व का कमतर योद्धा आंका है। धर्मादा गतिविधियों के अलावा आलोक रोजाना व्हाट्स-एप पर सकारात्मकता घोलने वाला आध्यात्मिक संदेश देते थे। आध्यात्मिकता का आचमन अब भाजपा के पैमानों पर पर्याप्त नहीं है। भाजपा के हिंदुत्व में उन्माद, उत्तेजना और उपद्रव की एसिड-वर्षा आवश्यक है। आलोक संजर यहां खरे नहीं उतरते हैं। गौरतलब है कि कोई उनके पक्ष में आवाज उठाने वाला भी नहीं है।
प्रज्ञा ठाकुर का अतीत आतंकवाद की स्याही से लिखा है और दिग्विजय सिंह की कहानी में विकास और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के कई अध्याय दर्ज हैं। चुनाव तय करेगा कि मप्र उन्माद और उपद्रव की राह पर बढ़ेगा या विकास की नई इबारत लिखेगा। (साभार-सुबह सवेरे )
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