अर्नब और पत्रकारिता अधर्म .. 2014 के पहले संघ के आयोजन में जाने पर ‘चड्डा’ का ताना और सांप्रदायिक बताकर एक पत्रकार को हटा दिया गया, आज अर्नब को बचाने पूरी गैंग सक्रिय है

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‘अर्नब और मैं’ की तुलना करते हुए 12 साल की पत्रकारिता को साझा कर रहे हैं सुचेन्द्र मिश्रा

पिछले दो दिनों में मुझसे दर्जनों बार पूछा गया है कि मेरा अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी के बारे में क्या कहना है, मैने अब तक अर्नब की गिरफ्तारी के विरोध में चल रहे अभियान में कोई योगदान क्यों नहीं दिया है?

दो दिन से में इस सवाल का जवाब देने से बच रहा हूं और उल्टे सवाल करता हूं कि अर्नब की गिरफ्तारी किस लिए हुई है? हालांकि अब तक केवल दो ही मित्रों ने इस संबंध में जवाब दिए हैं और दोनों के उत्तर संतोषजनक हैं। दोनों ही राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के कार्यकर्ता हैं।

हालांकि बहुत जतन करने के बाद भी पिछले दो दिनों से मेरा पत्रकारिता जीवन (जो कि 12 वर्ष का है) मेरी आंखों के सामने से एक फिल्म की तरह गुजर रहा है। जो सबसे प्रमुख बातें मुझे याद आ रही हैं उनमें से पहली तो है कि मैने किन मुश्किलों में अपने लिए नौकरी खोजी थी। मैंने सबसे पहले उज्जैन भास्कर में एक महीने काम करने की कोशिश की थी।

कोशिश इसलिए कि मैं इंदौर में रहता था और उज्जैन के लिए अपडाउन करता था। लगभग शाम चार बजे बस से उज्जैन पहुंचता था और वहां से रात तीन बजे पैसेंजर ट्रेन पकड़कर सुबह साढ़े पांच बजे इंदौर वापस लौटता था। एक महीने की इस कवायद में मुझे वेतन के नाम पर एक हजार रुपए मिले थे। जो कि निश्चित रूप से मेरे किराए के खर्च से कम थे।

मुझे नहीं पता कि अर्नब की पत्रकारिता की शुरुआत इस तरह की थी या नहीं? न ही हो तो बेहतर है। इसके बाद दो साल बेरोजगारी थी और इस बीच मेरे पिताजी नहीं रहे। नौकरी मेरे लिए बहुत जरुरी थी। इसलिए जर्नलिज्म ग्रेजुएट होने के बाद भी मैं कॉल सेंटर या बिल्डर के यहां भी काम करने को तैयार था। लेकिन खुश किस्मती से इंदौर में दैनिक भास्कर में नौकरी मिल गई और पत्रकारिता चल निकली।

बाद में मैं राजस्थान पत्रिका ग्रुप के इंदौर संस्करण में चला गया। तब से कागजों पर वहीं हूं। लेकिन 2012 में एक ऐसे घटनाक्रम से दो-चार हुआ जिसने मेरे नाम साथ स्थाई रूप एक विशेषण जोड़ दिया। विशेषण था चड्‌डा यानी कि स्वयंसेवक। आज भी पत्रकार मित्रों के संघ की किसी गतिविधि के बारे में जानने के लिए फोन आते हैं तो पहला शब्द यही होता है कि ए चड्‌डे, बता संघ क्या कर रहा है?

2012 में अपनी पत्रकारिता के शीर्ष पर था, ऐसा मैं इसलिए मानता हूं क्योंकि मैं अपनी स्थिति से संतुष्ट था और उसमें किसी बदलाव की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। मैं एक इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टर के रूप में पहचान बना चुका था।

एक दिन उस समय संघ के मालवा प्रांत के प्रचार प्रमुख का फोन आया और उन्होंने कहा कि क्षेत्र प्रचार प्रमुख जी आए हैं और वे मिलना चाहते हैं। इंदौर के कमिश्नर कार्यालय स्थित इंडियन कॉफी हॉउस में हम तीनोंं बैठे और उस समय क्षेत्र प्रचार प्रमुख जी ने कहा कि राममाधव जी इंदौर आ रहे हैं, उनका एक कार्यक्रम करना है। पत्रकारिता को छात्रों के साथ।

मैने हामी भर दी। इस तरह के 2006 में भी मैं इस तरह के एक आयोजन से जुड़ा रहा था। उसमें छात्र एकत्रित करने की जिम्मेदारी मेरी थी और कार्यक्रम के मुख्य वक्ता राममाधव थे। उनका ‘पत्रकारिता और राष्ट्रवाद’ विषय पर संबोधन था। उन्होंने अपने संबोधन की शुरूआत इस बात से की थी कि यदि कहीं पर बम धमाका हो जाए तो लोग जान बचाने के लिए बाहर भागते हैं और उस समय पत्रकार ये जानने के लिए अंदर की ओर कि वहां क्या हुआ?

यह सुनकर पहली बार अपने पत्रकार होने पर गर्व हुआ था और साथ ही समझ में आ गया कि एक पत्रकार की जिंदगी के पैमाने कितने अलग होते हैं? इन्हीं में एक सहकर्मी अभिषेक की एक बात और गांठ बांध ली कि एक रिपोर्टर को सर्दी, गर्मी, बारिश और बेइज्जती सहन करने की आदत होनी चाहिए।

इसके चलते मैने कभी भी अपने जीवन में पत्रकार होने के आधार पर कोई विशेष दर्जा नहीं मांगा। मेरे किसी भी वाहन पर प्रेस नहीं लिखा है हालांकि इसके नुकसान भी बहुत उठाए।

अब आते हैं 2012 के उस घटनाक्रम पर जिसमें राम माधव अमेरिका से लौट रहे थे और वे इंदौर में कुछ कार्यक्रमों में भाग लेने आए थे। हमारे प्रचार प्रमुख ने इस आयोजन के लिए मुझे बहुत स्वतंत्रता दी थी। उन्होंने स्थान तय करने के लिए भी मुझे ही अधिकृत किया था। उस समय मैं यूनिवर्सिटी की खबरें लिखता था। इसके चलते स्थान के लिए मैने देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के कुलपति से वहां का हॉल मांगा।

उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के बुजुर्ग नेता राज्यपाल थे। पहले तो मेरे पत्रकार होने के नाते उन्होंंने हां कर दी, लेकिन बाद में एक विभागाध्यक्ष ने उन्हें समझाया कि राममाधव का कार्यक्रम है, इसकी राजभवन में शिकायत हो जाएगी। बाद में मुझे कुलपति का फोन आया और उन्होंने हॉल देने में असमर्थता जताई साथ ही कहा कि मैं किसी और कॉलेज को कह दूंगा वो आपके कार्यक्रम के लिए हॉल दे देंगे।

खास बात यह है कि कुलपति को राजभवन का डर दिखाने वाले विभागाध्यक्ष भाजपा राज आने पर एक विवि के कुलपति बन गए और वे कुलपति केंद्र में भाजपा सरकार आने के बाद यूजीसी के चेयरमैन हो गए।

खैर, इस कार्यक्रम के लिए हॉल की व्यवस्था करना कोई बहुत कठिन काम नहीं था। व्यवस्था हो गई, कार्यक्रम हो गया और वो पूरी तरह से सफल भी रहा। मैने इस आयोजन के लिए मेरे आफिस से तीन दिन की छुट्‌टी ली थी। चुंकि राममाधव जी पत्रकारिता के विद्यार्थियों के साथ संवाद करना चाहते थे इसलिए इस आयोजन की सूचना मीडिया को नहीं थी। लेकिन मेरे समाचार पत्र के फोटोग्राफर को इसकी जानकारी थी। वे वहां पहुंचे और मंच पर मेरे राममाधव के साथ मेरे कुछ फोटो ले लिए।

उन्होंने इन फोटो को ऑफिस के नेटवर्क पर सेव कर दिए। वहां से वे फोटो संपादक ने देखे और पत्रिका के मुख्यालय जयपुर भेजे। कार्यक्रम के एक दिन बाद जब मैं ऑफिस गया तो मुझे पता चला कि मेरे उस आयोजन पर संपादक को आपत्ति है और उनके कहने पर नेशनल एडिटर को भी आपत्ति है। मैने स्टेट एडिटर बात की तो उन्होंने कहा कि तुम किसी ऐसे आयोजन में कैसे शामिल हो सकते हो?

यदि मैं तुम्हें किसी मुसलमान की खबर करने भेजूंगा तो वो इन फोटो को देखकर तुम पर कैसे भरौसा करेगा? उन्होंने मुझसे कहा कि तुम ऐसा करो कि लिखित में माफी मांग लो और लिख दो कि आगे से ऐसा नहीं होगा। लेकिन मैने इसके स्थान पर त्यागपत्र लिखना बेहतर समझा और मैं एक बार फिर बेरोजगार हो गया।

मैने इस घटना के बारे में ई-मेल के माध्यम से परमपूजनीय सरसंघचालक मोहन भागवत जी को अवगत कराया। मैने अपने पत्र में स्पष्ट लिखा था कि मैं यह पत्र आपको केवल यह बताने के लिए लिख रहा हूं कि आज भी स्वयंसेवक मीडिया में कितने अछूत माने जाते हैं?

मैने उनसे किसी तरह की मदद नहीं मांगी लेकिन फिर भी उन्होंने मेरे लिए हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी में नौकरी की व्यवस्था करने को कहा। हालांकि पिता के न होने के चलते मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियों को देखते हुए मैं दिल्ली जाने की स्थिति में नहीं था, इसलिए नहीं गया।

इस घटना के दो महीने बाद इंदौर में एक प्रान्त एकत्रीकरण का आयोजन था, जिसमें एक लाख स्वयंसेवकों ने भाग लिया था। परमपूजनीय सरसंघचालक इस आयोजन मेें आए थे। मेरे पास मेरे एक साथी स्वयंसेवक का फोन आया कि आज सरसंघचालक जी ने कार्यकर्ताओं के बीच आपके नाम का उल्लेख किया। इसके बाद इस तरह को और भी फोन आए। सभी ने यही बताया। एक स्वयंसेवक के लिए इस घटना का क्या मतलब होता है यह एक स्वयंसेवक ही बता सकता है।

इस घटना के बाद मैं आठ माह तक बेरोजगार रहा हालांकि संपादक के बदल जाने के बाद नए संपादक ने मुझे वापस बुलाया और मैने एक बार फिर नौकरी जाइन की। लेकिन इस बेरोजगारी का मुझे आज भी कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मेरा मानना है कि पत्रकारिता वैसे भी कोई सुविधा नहीं है और न ही कोई सुविधाजनक पेशा है।

लेकिन इस मौके पर मुझे अर्नब याद आते हैं। उनके पास पैसा है, नाम है, खुद का चैनल है। वे चाहे तो खुद ही रिया चक्रवर्ती को हत्यारा बता सकते हैं, बिना सबूत उसकी गिरफ्तारी के लिए हैैशटैश चला सकते हैं। वे पूछता है भारत कहकर खुद को भारत भी घोषित कर सकते हैं। वे लोकप्रिय हैं और इसे अच्छी तरह भुना रहे हैं। लेकिन अब तक उनके चैनल ने या उन्होंने इस बात का कोई सबूत नहीं दिया है कि उन्होंने आत्महत्या करने वाले नाईक के बकाया 83 लाख रुपए चुकाए हैं या नहीं।

अर्नब का समर्थन किए जाने पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन समर्थकों को 2014 के पहले वाले अर्नब की जानकारी भी लेना चाहिए। इंदौरियों को तो कैलाश विजयवर्गीय प्रकरण भी याद करना चाहिए। यह जानकारी हर उस पत्रकार के बारे में ली जानी चाहिए जो 2014 के बाद अचानक राष्ट्रवाद के पुरोधा बन गए हैं। क्या इनकी कोई गारंटी है कि सत्ता बदलने पर ये फिर “सेक्युलर” नहीं होंगे?

अर्नब के लिए एकजुटता दिखाने का आह्वान करने वालों में मेरे कुछ मित्र भी हैंं। वे 2012 में भी मेरे मित्र थे लेकिन जब मैने उस एक आयोजन के चलते नौकरी गंवाई थी तो उस समय वो उनके लिए पत्रकारिता पर हमला नहीं था और शायद इसलिए उन्होंने फोन करके हालचाल लेना भी जरुरी नहीं समझा था जबकि इनमें कईं मेरी मित्रता पर ही अखबार में छपते थे।

फिर भी अर्नब मैं तुम्हारे लिए खुश हूं।

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