श्रवण गर्ग (वरिष्ठ पत्रकार)
अजीत जोगी से मेरी पहली मुलाक़ात शायद वर्ष 1981 में इंदौर में ‘नई दुनिया’अख़बार के कार्यालय में हुई थी जहाँ मैं दिल्ली से लौटने के बाद काम करने लगा था। जोगी रायपुर से स्थानांतरित होकर इंदौर के कलेक्टर बने थे और उन्होंने रमेश सक्सेना से चार्ज लिया था।थोड़ा आश्चर्य हुआ था कि किसी कलेक्टर को अपना काम सम्भालने के तुरंत बाद किसी अख़बार के दफ़्तर में हाज़िरी बजाने क्यों आना चाहिए ?
जोगी ने बाद में स्वयं ही मुझे बताया कि सक्सेना ने अपना चार्ज सौंपते हुए जो कुछ हिदायतें लिखित में उन्हें दीं थीं उनमें एक यह भी थी कि ‘नई दुनिया’ एक बड़ा अख़बार है और उससे नियमित सम्पर्क में रहना काम में मदद करेगा।मतलब यह था कि दिन में एक बार वहाँ सम्पर्क करना ठीक रहेगा।तब छत्तीसगढ़ नहीं बना था और अविभाजित मध्य प्रदेश का एकमात्र बड़ा अख़बार यही था।जोगी अख़बार के दफ़्तर की अपनी पहली मुलाक़ात में ही समझ गए थे कि शहर की नब्ज कहाँ पायी जाती है और प्रशासनिक सफलता के लिए उस पर पकड़ कितनी ज़रूरी है।जोगी से उन दिनों जो सम्बंध बना वह 2014 के अंत तक सक्रिय रूप से बना रहा।जैसे-जैसे रायपुर जाना कम होता गया,उनसे मिलना-जुलना भी कम होता गया।
जिस तरह की प्रतिभा के जोगी धनी थे ,यह समझ पाना मुश्किल था कि वे कुशल प्रशासक हैं या सफल राजनेता। उनमें दोनों के ही गुण ज़बरदस्त थे।वे कलेक्टरी करते हुए ग़ज़ब की राजनीति कर लेते थे और जब राजनेता बने तो उनकी ही बैच के अधिकारी समझ नहीं पाते थे कि उनके साथ और मातहत कैसे काम करें ।मेरा आकलन है कि जोगी के इंदौर में रहते हुए जिन दो बातों की खुलकर शुरुआत हुई वे आज भी जारी हैं।
एक तो यह कि कैसे कोई मुख्यमंत्री चाहे तो अपने कलेक्टर का उपयोग अपनी ही पार्टी के प्रतिद्वंद्वियों को राजनीतिक रूप से समाप्त करने में सफलतापूर्वक कर सकता है और दूसरे यह कि मौक़ा मिलने पर कैसे एक नौकरशाह सफल राजनेता भी बन सकता है।दोनों ही प्रयोग वर्तमान में भी चल रहे हैं।
अर्जुन सिंह के जमाने में इंदौर प्रदेश की राजनीति का प्रमुख केंद्र हुआ करता था ।कांग्रेस की सारी राजनीति यहीं से चलती थी।यज्ञदत्त शर्मा, सुरेश सेठ आदि बड़े नेता हुआ करते थे जो घोर अर्जुन सिंह विरोधी थे।इसे इंदौर की कांग्रेसी राजनीति को अर्जुन सिंह की देन भी माना जा सकता है कि जोगी की सफल मदद से उन्होंने इंदौर को नेतृत्व विहीन कर दिया।सारे बड़े नेता एक-एक करके हाशिए पर डाल दिए गए।आज इंदौर में कई कांग्रेसी नेताओं के बड़े-बड़े बंगले हैं पर पार्टी का कोई धनी-धोरी नहीं बचा है।कहा जाता है कि अर्जुन सिंह की डाली हुई परम्परा को दिग्विजय सिंह ने भी आगे ही बढ़ाया।
अपने कोई तीस से अधिक वर्षों के सम्बन्धों में अजित जोगी को मैंने एक पारिवारिक मित्र और शुभ चिंतक के अलावा भी कई अवतारों में देखा और उनकी जीवटता और आत्म बल के दर्शन किए।सड़क दुर्घटना के बाद अपने आधे शरीर के नि:शक्त हो जाने और व्हील चेयर पर सीमित हो जाने के बावजूद देश की राजनीति को लेकर उनकी पकड़ और जीवन जीने के प्रति तीव्र उत्कंठा अद्भुत और अद्वितीय थी।
वे मुस्कुराते हुए लड़ने वाले योद्धा थे , कभी भी हार नहीं मानते थे और जीतते रहना ही उनका स्वभाव था।छत्तीसगढ़ की राजनीति में उनकी कमी इसलिए ज़्यादा खलेगी कि जोगी के रूप में एक-अकेले व्यक्ति का विपक्ष ही सत्ता को उसकी धुरी पर क़ायम रखने के लिए पर्याप्त था।कहना चाहिए कि अजीत जोगी की ताक़त उनकी पत्नी डॉ. रेणु जोगी के निश्चल त्याग में छुपी हुई थी। वे अकेली पड़ गयीं हैं पर जिस विशाल संसार को अजित जोगी अपने पीछे छोड़ गए हैं वह उनकी, पुत्र अमित और परिवार की मदद करता रहेगा।विनम्र श्रद्धांजलि।