पंकज मुकाती (संपादक politicswala )
दरअसल, राहुल खरा बोलते हैं, पर उनके सिपाहसालार उतने ही खोटे सिक्के हैं। वे राहुल की टकसाल से निकले खरे सिक्के को भी बेईमानी के पानी से खोटा कर रहे हैं।
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नेतृत्व और टॉप लीडरशिप दोनों बेहद कमजोर है या सख्त नहीं है। जब तक लीडरशिप निर्ममता से एक -एक नेता का रिपोर्ट कार्ड नहीं बनाएगी कुछ नहीं होगा। ऐसे कितने ही अधिवेशन हो जाए बदलाव नहीं होगा।
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गुजरात। मोदी का गुजरात। गुजरात मॉडल। कारोबार का गुजरात। भाजपा का गढ़ गुजरात। गुजरात यानी मोदी दिखता है। दिखने से ज्यादा ये गढ़ दिया गया है। दिमाग में चस्पा कर दिया गया है। बेहद तरीके से। डिजिटल क्रांति और संघ के कानाफूसी तंत्र के जरिये।
क्या वाकई मोदी से पहले गुजरात समृद्ध नहीं था? क्या मोदी से पहले यहाँ कोई लीडर नहीं जन्मा ? वर्तमान पीढ़ी को तो ऐसा ही लगता है। पर इसी गुजरात में
महात्मा गांधी हुए, इसी भूमि से लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल निकले। इसी जमीन की पैदाइश मोरारजी देसाई रहे। ये कुछ बड़े नाम है।
ये कहानी इसलिए क्योंकि गुजरात में आज से कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हो रहा है। पूरे 64 साल बाद। आखिर गुजरात क्यों ? अपनी सरकारों वालों राज्यों में क्यों नहीं जुटी कांग्रेस ? दरअसल 1924 में महात्मा गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। ये उनका शताब्दी वर्ष है। कांग्रेस के गुजरात को चुनने का एक कारण ये भी हो सकता है।
दूसरा बड़ा कारण ये सवाल है कि कांग्रेस को गुजरात में पूछता कौन है ? ये मोदी का गढ़ है यहाँ कोई नहीं चलेगा। इसका जवाब देने की कोशिश कांग्रेस यहाँ
से करेगी। वो ये दिखाना चाहती है कि हम मोदी से मुकाबले को तैयार हैं। राहुल गांधी बार बार कह रहे हैं हम गुजरात जीतेंगे ? इसके पीछे उनकी क्या रिसर्च क्या मैदानी समझ है। इसका पता नहीं। खैर, नेता हैं जीत की जुबान ही बोलेंगे।
गुजरात के अधिवेशन से जुबान से ज्यादा जमीनी सक्रियता निकलने के उम्मीदे फिलहाल तो नहीं ही की जा सकती है। क्योंकि कांग्रेस के पास न तो कोई ढंग
का राष्ट्रीय नेता है न नेतृत्व। राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे उम्र के साथ साथ राजनीतिक चर्चा में भी कमजोर दिखते हैं। वहीँ राहुल गांधी कोशिश तो बहुत
करते हैं। पर उनकी पार्टी की राज्य इकाई के नेता ही उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते दिखते। राहुल एक अनचाहे नेता दिखते हैं।
यात्राओं ने राहुल को जनता के बीच पहचान दिलाई। पर वे अपनी राजनीति को राष्ट्रीय राजनीति का चेहरा नहीं बना सके। उनके सलाहकार बुरी तरह से थके और विफल दिखते हैं। राहुल के जातिगत जनगणना और सिर्फ पिछड़ा वर्ग की राजनीति उनके आभामंडल को बेहद छोटे दायरे में बांधती है। उनके आसपास एक पिछड़े की राजनीति का घेरा खींच दिया गया है। मानो इससे बाहर नहीं जाना है। वे उसी पिछड़ी रिंग में घिरे हुए हैं।
अब खुद राहुल गांधी का गुजरात कांग्रेस के बारे में दिया संबोधन पढ़िए “गुजरात कांग्रेस में दो तरह के लोग हैं । एक वे लोग हैं, जो दिल और ईमानदारी से कांग्रेस के लिए लड़ते हैं और जनता से जुड़े हुए हैं, दूसरे वे हैं, जिनका जनता से संपर्क टूट चुका है और बीजेपी के साथ मिले हुए हैं ।अगर ज़रूरत पड़े तो ऐसे पांच से 25 नेताओं को कांग्रेस से निकाल देना चाहिए.”
यानी राहुल को भी पता है कि गुजरात में कांग्रेसी नेता भाजपा से मिले हुए हैं। फिर आप क्या कर रहे हैं ? किसका इंतज़ार कर रहे हैं ऐसे गद्दारों को हटाने के लिए। दरअसल, राहुल खरा बोलते हैं, पर उनके सिपाहसालार उतने ही खोटे सिक्के हैं। वे राहुल की टकसाल से निकले खरे सिक्के को भी बेईमानी के पानी से खोटा कर रहे हैं।
कांग्रेस के तमाम हार के बाद मंथन होते रहे हैं। रिपोर्ट्स भी बनी। पर सब कभी कहीं लागू होती नहीं दिखी। इसका कारण साफ़ हैं नेतृत्व और टॉप लीडरशिप दोनों बेहद कमजोर है या सख्त नहीं है। जब तक लीडरशिप निर्ममता से एक एक नेता का रिपोर्ट कार्ड नहीं बनाएगी कुछ नहीं होगा। ऐसे कितने ही अधिवेशन हो जाए बदलाव नहीं होगा।
उम्मीद करें कि गुजरात अधिवेशन सिर्फ जलेबी, फाफड़ा की पार्टी बनकर न रहे।
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