सुषमा स्वराज के ख़ास रेड्डी बंधुओं के पैसों के दम पर चले
इस खेल में बीजेपी की अपनी सरकारें भी अस्थिर रही है
इस खेल में बीजेपी की अपनी सरकारें भी अस्थिर रही है
सुनील कुमार (संपादक, डेली छत्तीसगढ़)
कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस की गठबंधन सरकार जिस हद तक डांवाडोल चल रही है, उसका जारी रहना भी लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, लेकिन जिस अंदाज में सत्तारूढ़ गठबंधन के विधायक अपनी सरकार को गिराने के लिए एक साजिश की तरह लगे हुए हैं, वह लोकतंत्र के लिए उससे भी बड़ा खतरा है। फिर यह बात भी है कि आज तो इस राज्य में भाजपाविरोधी इन दो पार्टियों के गठबंधन में ऐसी तोडफ़ोड़हो रही है, लेकिन जब राज्य में महज भाजपा की सरकार थी, उस वक्त भी सत्तारूढ़ भाजपा विधायक बाढ़ में घिरे हुए अपने चुनाव क्षेत्रों को छोडक़र आन्ध्र के सात सितारा होटलों में ऐश कर रहे थे, और सरकार गिराने की पूरी कोशिश कर रहे थे। यह राज्य इस तरह की राजनीतिक अस्थिरता को भुगत चुका है, और भुगत रहा है।
इसके पीछे की वजहों को देखें, तो कर्नाटक के बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं की अवैध खनन से हुई दसियों हजार करोड़ की कमाई दिखती है जिसके चलते उनके सिर पर सुषमा स्वराज जैसी बड़ी नेता का हाथ रहते आया था, और जिसके चलते वे भाजपा-सरकार में ताकतवर मंत्री थे, और मुख्यमंत्री को पलटने के लिए वे विधायकों को लेकर दूसरे प्रदेशों में ठीक वैसे ही डेरा डाले हुए थे जैसा आज मुंबई या गोवा में सत्तारूढ़ विधायक डालकर बैठे हैं। रेड्डी बंधुओं की पैसे की ताकत, और दो नंबर के खनिज-धंधों की कर्नाटक में संभावनाओं को देखते हुए ऐसा लगता है कि आज वहां सरकार पलट भी जाए, तो भी भाजपा सत्तारूढ़ होकर भी रेड्डी बंधुओं के प्रभामंडल से मुक्त नहीं हो पाएगी। लोगों को याद है कि जब कानूनी मामलों में फंसे होने की वजह से इन्हें भाजपा ने उम्मीदवार नहीं बनाया, तो भी इनके इलाके में इन्हीं की मर्जी के भाजपा उम्मीदवार रहे, और उनके लिए जीत भी इन्हीं ने ही खरीदी थी।
अब अगर आज की मौजूदा कांग्रेस-जेडीएस सरकार को देखें तो यह कुछ अटपटे गठबंधन पर बनी और टिकी हुई है जिसमें बड़ी पार्टी कांग्रेस ने मुख्यमंत्री की कुर्सी छोटी पार्टी जेडीएस को दी है, और शुरू से ही इन दोनों पार्टियों के बीच तनातनी चल ही रही थी। इस बीच जब दिल्ली में नरेन्द्र मोदी की सरकार एक अभूतपूर्व और ऐतिहासिक बहुमत के साथ लौटकर आई, तो उसका असर देश के हर प्रदेश पर कुछ न कुछ पड़ रहा है। ऐसे में बहुत कम बहुमत से चलने वाली गठबंधन सरकार पर इसका जल्द असर पडऩा था, और कर्नाटक में यह बात सामने आई है। यह भी समझने की जरूरत है कि ऐसे कमाऊ राज्य में मंत्री बनने का मतलब अरबपति बनने की संभावना भी होता है, और कम ही विधायक ऐसे होंगे जो ऐसी संभावनाओं तक पहुंचने के लिए दल-बदल से कोई परहेज करें, या अपनी ही सरकार को पलटने और फायदा पाने का लालच छोड़ सकें। इसलिए आज महज भाजपा पर दल-बदल कराने और सरकार गिराने की तोहमत ठीक इसलिए नहीं है कि इस राज्य की संस्कृति ऐसी ही चली आ रही है, खुद खालिस भाजपा सरकार के भीतर भी ऐसी नौबत आ चुकी है, और आज राज्य की इन तीनों पार्टियों के लोग अगर सरकार गिराने, और सत्ता में आने के खेल में लगे हैं, तो वे तमाम पेशेवर खिलाड़ी हैं, और उनका यह खेल अगली किसी सरकार में भी जारी रहेगा।
कर्नाटक एक मिसाल है कि किसी राज्य में जब विधायकों और मंत्रियों की कमाई अंधाधुंध हो जाती है, तो लोकतंत्र किस तरह जूते मारकर भगा दिया जाता है। लोकतंत्र को सरकार और विधानसभा के सामने की सडक़ों के पार फुटपाथ पर नैतिकता और ईमानदारी के साथ बैठकर भीख मांगनी पड़ती है। यह सिलसिला लोकतंत्र को खारिज कर चुका है, और इसे महज एक सरकार गिराने से परे भी देखना चाहिए क्योंकि एक-एक करके बहुत से संपन्न राज्यों में काली कमाई के फेर में ऐसी विधायक खरीद-बिक्री बढ़ती चली जाएगी जिससे अगले किसी भी चुनाव में जनता की लोकतांत्रिक पसंद की बात एक गंदी लतीफा बनकर रह जाएगी। अभी हम केन्द्र सरकार और उसकी जांच एजेंसियों के दबाव का जिक्र इसलिए नहीं कर रहे हैं कि अभी तक कर्नाटक के नाटक में उसकी जरूरत दिखी नहीं है। जब निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी आत्मा बेचने के लिए मंडी में खुद ही खड़े हुए हैं, तो उनके पीछे किसी बंदूक के टिके होने की आशंका करने की जरूरत भी नहीं है। फिलहाल कर्नाटक की यह खरीद-बिक्री, मोलभाव, इस प्रदेश के लोकतंत्र के नाम पर कालिख है, और ऐसा लगता है कि अब भारत की राजनीति में किसी को कालिख से कोई परहेज रह भी नहीं गया है।
इसके पीछे की वजहों को देखें, तो कर्नाटक के बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं की अवैध खनन से हुई दसियों हजार करोड़ की कमाई दिखती है जिसके चलते उनके सिर पर सुषमा स्वराज जैसी बड़ी नेता का हाथ रहते आया था, और जिसके चलते वे भाजपा-सरकार में ताकतवर मंत्री थे, और मुख्यमंत्री को पलटने के लिए वे विधायकों को लेकर दूसरे प्रदेशों में ठीक वैसे ही डेरा डाले हुए थे जैसा आज मुंबई या गोवा में सत्तारूढ़ विधायक डालकर बैठे हैं। रेड्डी बंधुओं की पैसे की ताकत, और दो नंबर के खनिज-धंधों की कर्नाटक में संभावनाओं को देखते हुए ऐसा लगता है कि आज वहां सरकार पलट भी जाए, तो भी भाजपा सत्तारूढ़ होकर भी रेड्डी बंधुओं के प्रभामंडल से मुक्त नहीं हो पाएगी। लोगों को याद है कि जब कानूनी मामलों में फंसे होने की वजह से इन्हें भाजपा ने उम्मीदवार नहीं बनाया, तो भी इनके इलाके में इन्हीं की मर्जी के भाजपा उम्मीदवार रहे, और उनके लिए जीत भी इन्हीं ने ही खरीदी थी।
अब अगर आज की मौजूदा कांग्रेस-जेडीएस सरकार को देखें तो यह कुछ अटपटे गठबंधन पर बनी और टिकी हुई है जिसमें बड़ी पार्टी कांग्रेस ने मुख्यमंत्री की कुर्सी छोटी पार्टी जेडीएस को दी है, और शुरू से ही इन दोनों पार्टियों के बीच तनातनी चल ही रही थी। इस बीच जब दिल्ली में नरेन्द्र मोदी की सरकार एक अभूतपूर्व और ऐतिहासिक बहुमत के साथ लौटकर आई, तो उसका असर देश के हर प्रदेश पर कुछ न कुछ पड़ रहा है। ऐसे में बहुत कम बहुमत से चलने वाली गठबंधन सरकार पर इसका जल्द असर पडऩा था, और कर्नाटक में यह बात सामने आई है। यह भी समझने की जरूरत है कि ऐसे कमाऊ राज्य में मंत्री बनने का मतलब अरबपति बनने की संभावना भी होता है, और कम ही विधायक ऐसे होंगे जो ऐसी संभावनाओं तक पहुंचने के लिए दल-बदल से कोई परहेज करें, या अपनी ही सरकार को पलटने और फायदा पाने का लालच छोड़ सकें। इसलिए आज महज भाजपा पर दल-बदल कराने और सरकार गिराने की तोहमत ठीक इसलिए नहीं है कि इस राज्य की संस्कृति ऐसी ही चली आ रही है, खुद खालिस भाजपा सरकार के भीतर भी ऐसी नौबत आ चुकी है, और आज राज्य की इन तीनों पार्टियों के लोग अगर सरकार गिराने, और सत्ता में आने के खेल में लगे हैं, तो वे तमाम पेशेवर खिलाड़ी हैं, और उनका यह खेल अगली किसी सरकार में भी जारी रहेगा।
कर्नाटक एक मिसाल है कि किसी राज्य में जब विधायकों और मंत्रियों की कमाई अंधाधुंध हो जाती है, तो लोकतंत्र किस तरह जूते मारकर भगा दिया जाता है। लोकतंत्र को सरकार और विधानसभा के सामने की सडक़ों के पार फुटपाथ पर नैतिकता और ईमानदारी के साथ बैठकर भीख मांगनी पड़ती है। यह सिलसिला लोकतंत्र को खारिज कर चुका है, और इसे महज एक सरकार गिराने से परे भी देखना चाहिए क्योंकि एक-एक करके बहुत से संपन्न राज्यों में काली कमाई के फेर में ऐसी विधायक खरीद-बिक्री बढ़ती चली जाएगी जिससे अगले किसी भी चुनाव में जनता की लोकतांत्रिक पसंद की बात एक गंदी लतीफा बनकर रह जाएगी। अभी हम केन्द्र सरकार और उसकी जांच एजेंसियों के दबाव का जिक्र इसलिए नहीं कर रहे हैं कि अभी तक कर्नाटक के नाटक में उसकी जरूरत दिखी नहीं है। जब निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी आत्मा बेचने के लिए मंडी में खुद ही खड़े हुए हैं, तो उनके पीछे किसी बंदूक के टिके होने की आशंका करने की जरूरत भी नहीं है। फिलहाल कर्नाटक की यह खरीद-बिक्री, मोलभाव, इस प्रदेश के लोकतंत्र के नाम पर कालिख है, और ऐसा लगता है कि अब भारत की राजनीति में किसी को कालिख से कोई परहेज रह भी नहीं गया है।