Katchatheevu Island Dispute: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के श्रीलंका दौरे के बीच कच्चाथीवू द्वीप एक बार फिर राष्ट्रीय राजनीति और कूटनीति का गर्म मुद्दा बन गया है।
यह वही द्वीप है जिसे साल 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने एक समझौते के तहत श्रीलंका को सौंप दिया था।
अब लगभग 50 साल बाद मोदी सरकार उस फैसले पर सवाल खड़े कर रही है और तमिलनाडु की तमाम राजनीतिक ताकतें भी इस द्वीप को भारत में वापस लाने की मांग कर रही हैं।
क्या है कच्चाथीवू द्वीप ?
कच्चाथीवू एक छोटा, निर्जन द्वीप है, जो भारत के रामेश्वरम से करीब 19 किलोमीटर और श्रीलंका के जाफना से लगभग 16 किलोमीटर दूर स्थित है।
यह द्वीप बंगाल की खाड़ी और अरब सागर को जोड़ने वाले पाक स्ट्रेट (Palk Strait) में स्थित है।
द्वीप का क्षेत्रफल करीब 285 एकड़ है, भूगर्भीय दृष्टि से यह द्वीप 14वीं सदी में एक ज्वालामुखीय विस्फोट के कारण बना था।
इतिहासकारों के अनुसार, 17वीं सदी में रामनाद (अब रामनाथपुरम) के राजा ने इस द्वीप पर अपना अधिकार स्थापित किया था।
अंग्रेजों के समय यह मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा रहा और 1913 में भारत सरकार और रामनाथपुरम के राजा के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें कच्चाथीवू को भारत का हिस्सा माना गया।
इंदिरा गांधी ने क्यों सौंपा द्वीप ?
1974 में भारत और श्रीलंका के बीच समुद्री सीमा को लेकर समझौता हुआ।
भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और श्रीलंका की प्रधानमंत्री सिरिमावो भंडारनायके ने मिलकर चार समुद्री समझौते किए।
इसमें से एक समझौते के तहत कच्चाथीवू द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया गया।
इस समझौते का उद्देश्य दक्षिण एशिया में शांति और स्थायित्व को बढ़ावा देना था। हालांकि, इस निर्णय का तत्काल विरोध तमिलनाडु में हुआ।
उस समय के मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने इस पर सख्त आपत्ति जताई थी और केंद्र सरकार से आग्रह किया था कि यह ऐतिहासिक रूप से रामनाद साम्राज्य का हिस्सा रहा है, इसलिए इसे श्रीलंका को न सौंपा जाए।
मछुआरों की बढ़ती मुश्किलें
समझौते के तहत भारतीय मछुआरों को कच्चाथीवू द्वीप पर मछली पकड़ने और जाल सुखाने की इजाजत दी गई थी।
लेकिन, समय के साथ श्रीलंका ने अपने अधिकार क्षेत्र का विस्तार करना शुरू कर दिया और 2009 में श्रीलंका की नौसेना ने इस द्वीप पर सख्ती बढ़ा दी।
तमिलनाडु के मछुआरों को गिरफ्तार किया जाने लगा, उन पर जुर्माने लगाए गए और कई बार मुठभेड़ जैसी स्थितियां भी पैदा हुईं।
तमिलनाडु की मछुआरा आबादी के लिए यह मुद्दा आजीविका और अस्मिता दोनों का विषय बन गया।
इस द्वीप से न सिर्फ उनकी परंपरागत मछली पकड़ने की जगह जुड़ी है, बल्कि हर साल फरवरी में हजारों श्रद्धालु इस द्वीप पर स्थित सेंट एंथोनी चर्च में प्रार्थना करने भी जाते हैं।
तमिलनाडु की राजनीति में अहम मुद्दा
तमिलनाडु की राजनीति में यह मुद्दा एक अहम भावनात्मक और क्षेत्रीय मुद्दा बन गया है।
1991 में जयललिता सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से मांग की थी कि कच्चाथीवू को फिर से भारत में शामिल किया जाए।
2008 में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और 1974-76 के समझौतों को रद्द करने की मांग की।
2015 में बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर यह दावा किया कि यह समझौता बिना संसद की मंजूरी के हुआ था, इसलिए यह असंवैधानिक है।
इस पर केंद्र सरकार के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने जवाब दिया कि “कच्चाथीवू को वापस लेने के लिए अब युद्ध लड़ना पड़ेगा, क्योंकि श्रीलंका इसे छोड़ने को तैयार नहीं है।”
हालिया घटनाएं और मोदी सरकार का रुख
2023 में श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे की भारत यात्रा से पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर आग्रह किया कि वे इस मुद्दे को श्रीलंकाई नेतृत्व के सामने उठाएं।
उन्होंने कहा कि यह द्वीप न केवल तमिल मछुआरों की आजीविका से जुड़ा है, बल्कि यह तमिल अस्मिता का भी प्रतीक है।
2024 में तमिलनाडु बीजेपी अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने एक RTI के जरिए दस्तावेज निकाले, जिनमें बताया गया कि कच्चाथीवू सौंपने का फैसला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव के दौरान तमिलनाडु में कांग्रेस की स्थिति मजबूत करने के इरादे से किया था।
इसके बाद प्रधानमंत्री मोदी ने भी एक चुनावी सभा में कहा, “भारत माता का एक हिस्सा बिना किसी लड़ाई के दे दिया गया।”
क्या श्रीलंका लौटाएगा कच्चाथीवू ?
श्रीलंका सरकार इस द्वीप को लेकर बेहद स्पष्ट रुख अपनाए हुए है। श्रीलंकाई प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि श्रीलंका अपने जल क्षेत्र में घुसपैठ करने वाले मछुआरों पर कार्रवाई करेगा।
उन्होंने चेतावनी तक दी थी कि यदि भारतीय मछुआरे उनकी सीमा में आते हैं, तो उन्हें गोली भी मारी जा सकती है। वे भारत को इस क्षेत्र में मछली पकड़ने की इजाजत नहीं दे सकते।
श्रीलंका का कहना है कि उसके जल क्षेत्र में मछलियों की संख्या कम होती जा रही है, जिससे उनके मछुआरों की आजीविका पर संकट आ गया है।
क्या मोदी सरकार इस मुद्दे को आगे बढ़ाएगी?
अब सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी अपने श्रीलंका दौरे में कच्चाथीवू मुद्दे को उठाएंगे? इस पर सरकार की ओर से अभी कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है, लेकिन जिस तरह से यह मामला बीजेपी के चुनावी भाषणों और राज्य की राजनीति में गर्माया है, उससे संकेत मिलते हैं कि सरकार इसे भविष्य में एक कूटनीतिक एजेंडे के रूप में जरूर इस्तेमाल कर सकती है।
कच्चाथीवू द्वीप आज केवल एक भूभाग नहीं, बल्कि राष्ट्रीय गौरव, क्षेत्रीय अस्मिता और मछुआरों की आजीविका से जुड़ा विषय बन चुका है। बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी के श्रीलंका दौरे से इस पर चर्चा फिर तेज हो गई है। लेकिन क्या यह द्वीप कभी वापस आएगा? इसका जवाब फिलहाल कूटनीति, अंतरराष्ट्रीय कानून और राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर है।
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