Women Panch Scam in CG: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से ठीक पहले छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले से आई ये खबर न सिर्फ महिलाओं के अधिकारों पर सवाल उठाती है, बल्कि पंचायतों में महिलाओं की वास्तविक स्थिति का आईना भी दिखाती है। परसवारा पंचायत में नव-निर्वाचित 6 महिला पंचों की जगह उनके पतियों ने गोपनीयता और पद की शपथ ली।
यह घटना सोशल मीडिया पर वायरल हुई और इसके बाद पंचायत सचिव को निलंबित कर दिया गया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या केवल कार्रवाई से इस ‘प्रॉक्सी राज’ का अंत हो पाएगा और कब तक महिला जनप्रतिनिधि को अपने ‘प्रधानपति राज’ के साये में जीना पड़ेगा ?
जीतीं पत्नियां और शपथ पतियों ने ली
छत्तीसगढ़ के कबीरधाम ज़िला मुख्यालय से 35 किलोमीटर दूर परसवारा पंचायत है। छत्तीसगढ़ में मई 2008 से ही पंचायत में महिलाओं के लिए 50 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान है। यही कारण है कि राज्य में बड़ी संख्या में महिलाएं चुनाव जीतती हैं। पिछले महीने ही राज्य में पंचायत चुनाव हुए और यहां भी महिलाएं चुनाव जीती।
पंचायत विभाग के आदेश पर राज्य भर में ग्राम पंचायतों का प्रथम विशेष सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें नव-निर्वाचित पंचों-सरपंचों को पदभार ग्रहण करना था। 3 मार्च को यही सम्मेलन परसवारा में भी आयोजित किया गया। यहां 6 महिलाओं समेत 12 पंचों को पदभार ग्रहण करना था, लेकिन इस कार्यक्रम में एक भी महिला शामिल नहीं हुईं थीं।
चुनी हुई महिला पंचों की जगह, माला पहने और गुलाल लगाए उनके पतियों ने पदभार ग्रहण की शपथ ली। यानी न सिर्फ महिलाओं की भागीदारी को दरकिनार किया गया, बल्कि पूरी लोकतांत्रिक की प्रक्रिया का ही मजाक बना दिया गया।
जब इस मामले का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ तो पहले तो पंचायत के अधिकारियों ने इससे पल्ला झाड़ने की कोशिश की। लेकिन जब बात राजधानी तक पहुंची, तो सरकार ने पूरे मामले की जांच के निर्देश दिए। इसके बाद मामले में पंचायत सचिव रणवीर सिंह ठाकुर को निलंबित कर दिया गया।

महिला आरक्षण का असली चेहरा
2011 की जनगणना के अनुसार 320 परिवारों और 1545 की जनसंख्या वाले परसवारा में लिंगानुपात 936 है, जो छत्तीसगढ़ के लिंगानुपात 969 की तुलना में कम है। यहां तक कि इस पंचायत में साक्षरता दर भी केवल 67.44 फ़ीसदी है, जिसमें पुरुष साक्षरता 82.86 फ़ीसदी और महिला साक्षरता 51.19 फ़ीसदी है।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में पंचायतों में महिलाओं को 50% आरक्षण दिया गया है, ताकि ग्रामीण नेतृत्व में महिलाएं अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें। हालांकि महिला सशक्तिकरण की यह तस्वीर सिर्फ कागजों तक सीमित है। गांवों में आज भी वही पुराने चेहरे, वही पुरुष आवाज़ें पंचायतों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। फर्क बस इतना है कि अब वे ‘सरपंच पति’ या ‘पंच पति’ जैसे नए नामों से पहचाने जा रहे हैं।
देश में एसपी यानी सरपंच पति और पीपी यानी प्रधान पति या पंच पति को किसी पद की तरह मान लिया गया है। बड़ी संख्या में महिला जनप्रतिनिधियों की जगह उनके पति, भाई या दूसरे रिश्तेदार उनका कामकाज संभालते रहे हैं, यहां तक कि पंचायतों की बैठक तक लेते रहे हैं। महिला विधायक, सांसद और मंत्री तक के मामलों में उनके पति के हस्तक्षेप के मामले भी समय-समय पर सामने आते रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी बेअसर?
सुप्रीम कोर्ट ने 6 जुलाई 2023 को पंचायती राज में महिलाओं की प्रॉक्सी भागीदारी यानी पतियों द्वारा पदभार संभालने की परंपरा पर कड़ी आपत्ति जताई थी और इसे खत्म करने के लिए सख्त दिशा-निर्देश दिए थे। पंच पतियों और प्रधान पतियों जैसी व्यवस्था पर रोक लगाने के लिए कोर्ट के आदेश पर पंचायती राज मंत्रालय ने 19 सितंबर 2023 को पूर्व खान सचिव सुशील कुमार की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था। प्रॉक्सी व्यवस्था पर नियंत्रण के लिए सुझाव देने के साथ समिति ने हाल ही में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी है।
रिपोर्ट में एक तरफ़ जहां महिला जनप्रतिनिधि की जगह पति या किसी पुरुष रिश्तेदार को काम करते पाए जाने पर कठोर दंड का सुझाव दिया है। वहीं ऐसी भूमिका के ख़िलाफ़ काम करने वाले ‘एंटी प्रधान पति’ को पुरस्कृत करने की भी बात कही है। समिति ने कहा है कि तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली, विशेष रूप से ग्राम पंचायत स्तर पर स्थानीय जनप्रतिनिधि के रूप में अपनी भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों को प्रभावी ढंग से निभाने के लिए पर्याप्त जानकारी और अनुभव की कमी है। हालांकि इस रिपोर्ट के विपरीत परसवारा का प्रकरण बताता है कि पंचायतों में महिला सशक्तिकरण अब भी केवल दिखावा है।

सवाल जो सरकार, समाज और व्यवस्था से पूछे जाने चाहिए
- पंचायतों में महिला आरक्षण का असली लाभ कब मिलेगा?
- क्या महिला जनप्रतिनिधियों को स्वतंत्र निर्णय लेने और काम करने का माहौल मिलेगा?
- क्या प्रधान पति संस्कृति को खत्म करने के लिए कड़े कानून और धरातल पर सख्ती अपनाई जाएगी?
- क्या पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए विशेष प्रशिक्षण और जागरूकता अभियान चलाए जाएंगे, ताकि वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझ सकें?
महिला दिवस पर ये कैसा सशक्तिकरण?
जब देश और दुनिया महिला सशक्तिकरण का जश्न मना रहे हैं, तब परसवारा जैसी घटनाएं यह सवाल खड़ा करती हैं कि आखिर महिला आरक्षण का फायदा महिलाओं को मिल रहा है या उनके पतियों को? क्या महिला जनप्रतिनिधियों को सिर्फ ‘कठपुतली’ बनाकर सत्ता की डोर उनके पतियों के हाथ में सौंप दी गई है? महिला दिवस पर जब बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, तब परसवारा जैसी घटनाएं यह अहसास कराती हैं कि गांवों में महिला नेतृत्व का सपना आज भी अधूरा है।
महिला आरक्षण का मतलब यह नहीं है कि सिर्फ महिलाओं का नाम लिख दिया जाए और काम उनके पति करें। यह महिलाओं के अधिकारों का खुला अपमान है और संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। जब तक महिलाएं अपने अधिकारों के लिए खुद खड़ी नहीं होंगी और जब तक समाज उनकी वास्तविक भागीदारी को स्वीकार नहीं करेगा, तब तक महिला दिवस के मंचों से की जाने वाली सारी बातें खोखली रहेंगी। परसवारा जैसी घटनाएं महिला सशक्तिकरण के नाम पर चल रही दिखावे की राजनीति का पर्दाफाश करती हैं और यह बताती हैं कि असली लड़ाई अभी बाकी है।
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