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सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार)
छत्तीसगढ़ के खबरों से पटे रहते हैं कि कहां पर करोड़ों लगाकर लगाए गए फौव्वारे कुछ हफ्ते भी नहीं चले, किस तरह दसियों लाख से बनाए गए महंगे हाईटेक सार्वजनिक शौचालय जरा भी काम नहीं आ पाए, किस तरह सरकारी अस्पतालों में करोड़ों की मशीनें बरसों से बक्सों से ही नहीं निकलीं, और उनकी गारंटी-वारंटी सब खत्म हो गई, किस तरह किसी अस्पताल में मशीनें हैं, तो उनमें लगने वाले रसायन नहीं हैं, और जहां मशीनें नहीं हैं वहां ऐसे रसायन पड़े-पड़े खत्म हो गए। ये खबरें भी रहती हैं कि कहां कितनी किताबें सीधे कागज कारखाने में बेच दी गईं, कहां पर खेती के उपकरण ऐसे खरीदे गए कि वे चार दिन नहीं चले। इन खबरों का कोई अंत ही नहीं है। और हम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को देखें, तो यहां पिछले 25 बरस की सरकारों में पहली सरकार तो महज तीन साल के कार्यकाल की थी, इसलिए उसके पास ऐसी बर्बादी की गुंजाइश नहीं थी, लेकिन उसके बाद की तमाम सरकारों का यही सिलसिला चले आ रहा है कि कभी स्मार्टसिटी के बजट से, तो कभी मुआवजा-वृक्षारोपण के लिए बनाए गए कैम्पा फंड से, तो कभी डीएमएफ और उद्योगों के सीएसआर फंड से भयानक दर्जे की बर्बादी की गई। चूंकि इस तरह का पैसा अक्सर ही राज्य के बजट के बाहर का रहता है, इसलिए सरकार में मानो किसी को कोई दर्द ही नहीं रहता।
अब सवाल यह उठता है कि अब तक जो हो चुका है उससे सबक लेना कब शुरू किया जाएगा? या फिर पिछली मिसालों को आगे की राह मानकर पहले से अधिक ऊंचे दर्जे की बर्बादी की जाएगी? और यह बर्बादी किसी लापरवाही से नहीं होती है, यह पूरी तरह सोच-समझकर, साजिश तैयार करके कमीशन और रिश्वत खाने की नीयत से की जाती है, और मंत्रियों के इर्द-गिर्द कुछ ऐसे पेशेवर जालसाज किस्म के निजी सहायक रहते हैं जो हर सरकार में किसी न किसी मंत्री-पद से जोंक की तरह चिपक जाते हैं, और जनता के लहू की बूंद-बूंद चूसने के लिए ओवरटाइम करते हैं। ऐसे लोग एक संगठित गिरोहबंद भ्रष्टाचार का सिलसिला चलाते हैं, जो कबाड़ किस्म की मशीनें खरीदता है, तोता-मैना किस्म की कहानियों की किताबें स्कूल-लाइब्रेरी के लिए खरीदता है, और तमाम किस्म की गैरजरूरी चीजें मनचाहे सप्लायरों से लेता है, और ठेकेदारों से बनवाता है। बिना जरूरत करोड़ों की पार्किंग बना ली जाती है, जिसका इस्तेमाल नहीं रहता, और बाद में वहां दूसरे सरकारी काम किए जाते हैं। कई जगहों पर तो कुछ महीनों के भीतर जो टेक्नॉलॉजी खत्म होने वाली है, उसके सामान करोड़ों के खरीद लिए जाते हैं।
अभी छत्तीसगढ़ सरकार ने यहां स्थित आईआईएम के साथ मिलकर गुड गवर्नेंस का एक कोर्स शुरू करवाया है जिसमें पढऩे वाले लोगों की फीस राज्य सरकार ही देगी। इसके छात्र-छात्राओं को हफ्ते में पांच दिन सरकार के साथ काम करना होगा, और इस तजुर्बे के साथ हफ्ते में दो दिन आईआईएम में पढ़ाई होगी। हमारा ख्याल है कि इस कोर्स का नतीजा आने में तो वक्त लगेगा, राज्य सरकार को आईआईएम के साथ मिलकर प्रदेश सरकार के साधन-सुविधाओं की उत्पादकता-ऑडिट भी करवानी चाहिए। वैसे तो प्रदेश में कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल, सीएजी की तरफ से वित्तीय ऑडिट होती है, लेकिन हम सरकारी खर्च से खरीदे गए सामानों, और बनाए गए निर्माणों की उत्पादकता की एक अलग ऑडिट की सिफारिश कर रहे हैं। ऐसा कोई प्रोजेक्ट खुद आईआईएम के लिए अच्छा होगा जहां के छात्र-छात्राओं को मैनेजमेंट सीखना होता है, और राज्य सरकार के विभागों के इतने बड़े मैनेजमेंट से सीखने का मौका इन छात्र-छात्राओं को किसी बड़ी कंपनी में भी नहीं मिलेगा। छत्तीसगढ़ सरकार डेढ़ लाख करोड़ सालाना के बजट तक पहुंच गई है, और सरकार की बहुत सी योजनाओं पर पांच-दस हजार करोड़ एक-एक पर खर्च होता है। डीएमएफ, सीएसआर, कैम्पा जैसे फंड, और अब बंद होने जा रहे स्मार्टसिटी प्रोजेक्ट के तहत जितने किस्म के काम हुए हैं, उनकी उत्पादकता-ऑडिट से खुद सरकारी अमले को यह समझ में आएगा कि भ्रष्टाचार में कितना पैसा डूब रहा है, और किस तरह करोड़ों से खरीदी या बनाई गई सहूलियत कूड़ा-करकट साबित हो रही है। हमें पूरा यकीन है कि आईआईएम जैसे विश्वविख्यात संस्थान के प्राध्यापक ऐसे अध्ययन और ऐसे ऑडिट को एक बड़ा दिलचस्प प्रोजेक्ट मानेंगे, और राज्य की बर्बादी, उसके भ्रष्टाचार के एक फीसदी से भी कम लागत से आईआईएम ऐसी रिपोर्ट बना सकती है।
वैसे सच तो यह है कि ऐसे विश्लेषण के लिए किसी बाहर विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है क्योंकि सरकार में बच्चे-बच्चे को यह मालूम है कि संगठित भ्रष्टाचार किस तरह होता है। लेकिन फिर भी अगर घर के भीतर ही हर सुधार मुमकिन होता, तो सीएजी या दूसरे ऑडिटर की जरूरत क्या रहती। आईआईएम जैसी एक बाहरी संस्था से एक ईमानदार विश्लेषण की उम्मीद की जा सकती है, और प्रदेश में हर बरस हजारों करोड़ रूपए डूबने से बच सकते हैं। हो सकता है कि सरकार में बैठे हुए बहुत से लोगों को यह सलाह न सुहाए क्योंकि जब भ्रष्टाचार का कद्दू कटता है, तो ही सबमें बंटता है। फिर भी हम अपनी जिम्मेदारी मानते हैं कि हम जनता के खून-पसीने की कमाई की बर्बादी रोकने की बात उठाते रहें। आगे तो फिर किसी भी देश-प्रदेश की निर्वाचित सरकार का यह विशेषाधिकार और एकाधिकार होता है कि वह जितना चाहे उतना भ्रष्टाचार जारी रखे, और चाहे तो पिछली सरकारों के भ्रष्ट तजुर्बों को पहली सीढ़ी मानकर और भी आगे बढ़े, और भी ऊपर चढ़े।