Tri Language Policy Controversy

Tri Language Policy Controversy

थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी पर सियासत: जानें तमिलनाडु के बाद महाराष्ट्र में राजनीति का शिकार क्यों हो गई यह पॉलिसी?

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Tri Language Policy Controversy: नई शिक्षा नीति 2020 (NEP-2020) के तहत प्रस्तावित थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी एक बार फिर विवादों में है।

तमिलनाडु के बाद अब महाराष्ट्र में इसे लेकर तीखी सियासत देखने को मिल रही है। महाराष्ट्र सरकार को दो बार अपने आदेश वापस लेने पड़े हैं।

हिंदी को तीसरी भाषा के तौर पर अनिवार्य करने के फैसले के खिलाफ राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) और उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी) ने खुलकर विरोध जताया और 5 जुलाई को संयुक्त रैली का ऐलान कर दिया।

अंततः सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा और उसने अपने 16 और 17 अप्रैल के आदेश रद्द कर दिए।

इस पूरे घटनाक्रम ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी राज्य दर राज्य राजनीतिक विवादों में क्यों उलझ रही है?

महाराष्ट्र में थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी का आदेश वापस

महाराष्ट्र सरकार ने थ्री लैंग्वेज पॉलिसी लागू करने का आदेश वापस ले लिया है।

दरअसल, सरकार ने हाल ही में मराठी और अंग्रेजी के साथ हिंदी भाषा को अनिवार्य करने का आदेश जारी किया था।

तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य किए जाने के खिलाफ राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे खुलकर उतर आए।

सरकार ने पहले तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को वैकल्पिक किया और अब इससे संबंधित आदेश ही वापस ले लिया है।

गौर करने वाली बात ये है कि महाराष्ट्र कोई पहला राज्य नहीं हैं, जहां थ्री लैंग्वेज पॉलिसी का विरोध हुआ है।

इससे पहले तमिलनाडु में भी इस फॉर्मूले का विरोध हो चुका है।

तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य

अप्रैल 2025 में महाराष्ट्र सरकार ने आदेश जारी कर कक्षा 1 से 5वीं तक के छात्रों के लिए तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य कर दिया था।

यह निर्णय राज्य के सभी मराठी और अंग्रेजी माध्यम स्कूलों पर लागू किया गया था।

इसके तहत अन्य भारतीय भाषाओं को भी तीसरे विकल्प के तौर पर चुना जा सकता था, लेकिन हिंदी को पहली प्राथमिकता दी गई थी।

इस आदेश का एमएनएस और शिवसेना (यूबीटी) ने तीखा विरोध किया।

राज ठाकरे ने इसे हिंदी थोपने की कोशिश करार दिया, जबकि उद्धव ठाकरे ने इसे “भाषायी इमरजेंसी” बताया।

शरद पवार ने भी कहा कि कक्षा 1 के छात्रों पर तीसरी भाषा थोपना बोझ डालने जैसा है।

विवाद गहराने पर सरकार ने 17 जून को संशोधित आदेश जारी किया, जिसमें हिंदी को वैकल्पिक कर दिया गया लेकिन विपक्ष संतुष्ट नहीं हुआ।

इसके बाद 30 जून को सरकार ने दोनों आदेश रद्द कर दिए और घोषणा की कि अब नरेंद्र जाधव समिति की रिपोर्ट के बाद ही कोई निर्णय लिया जाएगा।

थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी पर किसने क्या बोला

राज ठाकरे (एमएनएस प्रमुख) ने कहा, “तीन भाषाएं पढ़ाने के नाम पर हिंदी थोपने का फैसला स्थायी रूप से वापस ले लिया गया है। सरकार पर किसका दबाव था, यह अब भी रहस्य है। अगर आगे ऐसी कोई कोशिश हुई तो मनसे उसे बर्दाश्त नहीं करेगी।”

संजय राउत (शिवसेना सांसद) ने इसे मराठी एकता की जीत बताया और कहा कि ठाकरे बंधुओं का एक होना सरकार के लिए बड़ा झटका है।

उद्धव ठाकरे ने कहा, “हम हिंदी के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन इसे जबरन थोपना स्वीकार नहीं किया जा सकता। सरकार मराठी और हिंदी भाषी लोगों के बीच खाई पैदा करना चाहती है।”

शरद पवार (एनसीपी प्रमुख) ने तर्क दिया कि बच्चों पर अतिरिक्त भाषाओं का बोझ डालना उचित नहीं है। उन्होंने सुझाव दिया कि हिंदी जैसी नई भाषा को कक्षा 5 के बाद ही पढ़ाया जाना चाहिए।

राज्य दर राज्य पॉलिसी सियासत की शिकार क्यों?

महाराष्ट्र से पहले तमिलनाडु ने भी थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी को सिरे से खारिज कर दिया था।

तमिलनाडु की राजनीति में डीएमके और एआईएडीएमके जैसी पार्टियां शुरू से हिंदी थोपने के खिलाफ रही हैं।

तमिल समाज की संस्कृति और भाषा को लेकर वहां अस्मिता की भावना बहुत मजबूत है।

महाराष्ट्र में भी वही स्थिति देखने को मिली है, जहां मराठी अस्मिता की राजनीति लंबे समय से हावी रही है।

राज ठाकरे की एमएनएस ने अपनी राजनीतिक शुरुआत ही गैर-मराठी विरोध से की थी।

हालांकि बाद में वह आंदोलन धीमा पड़ गया, लेकिन इस मुद्दे ने ठाकरे बंधुओं को खुद को फिर से स्थापित करने का मौका दे दिया।

दरअसल, थ्री लैंग्वेज पॉलिसी का विरोध केवल भाषायी नहीं, बल्कि राजनीतिक रणनीति का हिस्सा भी बन गया है।

इसमें क्षेत्रीय दलों को केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने का अवसर मिलता है।

हिंदी को अनिवार्य करने की हर कोशिश को ये दल “हिंदी थोपने की साजिश” बताकर स्थानीय वोटरों को एकजुट करते हैं।

50 साल से ज्यादा पुरानी है थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी

थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी भारत में कोई नई अवधारणा नहीं है।

इसकी शुरुआत 1968 में इंदिरा गांधी सरकार के कार्यकाल में हुई थी, जब कोठारी आयोग की सिफारिशों पर इसे लागू किया गया।

हालांकि, इसके बाद साल 1992 में नरसिम्हा राव सरकार ने इसमें संशोधन किया।

अभी एक बार फिर मोदी सरकार में नया स्वरूप आया।

नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 में इस नीति को नए रूप में प्रस्तुत किया गया है।

इसके अनुसार, स्कूली छात्रों को कम से कम दो भारतीय भाषाओं के साथ एक विदेशी भाषा (अंग्रेजी) पढ़नी होगी।

पॉलिसी के तहत छात्रों को तीन भाषाएं पढ़नी हैं:

  1. मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा
  2. एक आधुनिक भारतीय भाषा (जैसे हिंदी, गुजराती, तमिल आदि)
  3. एक विदेशी भाषा (जैसे अंग्रेज़ी)

NEP 2020 के अनुसार, यह निर्णय राज्यों और स्कूलों पर छोड़ा गया है कि वे कौन सी भाषाएं लागू करेंगे।

लेकिन, इसमें यह शर्त भी है कि कम से कम दो भाषाएं भारतीय होनी चाहिए।

इसके अलावा एक क्लास के कम से कम 20 स्टूडेंट्स हिंदी से इतर दूसरी भाषा को चुनें।

ऐसी स्थिति में स्कूल में दूसरी भाषा की टीचर भी अपॉइंट कराई जाएगी।

अगर दूसरी भाषा चुनने वाले स्टूडेंट्स का नंबर 20 से कम है तो वह भाषा ऑनलाइन माध्यम से पढ़ाई जाएगी।

भाषा से अधिक राजनीति का मामला

थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी अब शिक्षा सुधार की पहल से अधिक राजनीतिक मुद्दा बन चुकी है।

यह स्पष्ट है कि जब तक क्षेत्रीय अस्मिता और भाषा की राजनीति भारतीय राजनीति का हिस्सा रहेगी, तब तक ऐसी नीतियों को लागू करना टकराव का कारण बनता रहेगा।

यह एक सबक भी है कि भाषा जैसी संवेदनशील नीति को लागू करने से पहले केंद्र और राज्य के बीच आपसी संवाद और सहमति जरूरी है।

यदि संवाद की जगह दबाव की रणनीति अपनाई जाती है, तो भाषा का सवाल राजनीतिक मोहरा बनता रहेगा — जैसा कि महाराष्ट्र में हुआ।

इसके लिए केंद्र सरकार को राज्यों की भाषायी विविधता और संवेदनशीलता का सम्मान करते हुए लचीलापन बरतना चाहिए।

इसके अलावा शिक्षा को राजनीतिक मुद्दा बनने से रोकने के लिए भाषा की जगह रोजगारोन्मुख शिक्षा और स्किल डेवलपमेंट को प्राथमिकता दी जाए।

 

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