लचीला लोकतंत्र – बीबीसी डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध का समर्थन, केरल स्टोरी पर प्रतिबंध का विरोध ?
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लचीला लोकतंत्र – बीबीसी डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध का समर्थन, केरल स्टोरी पर प्रतिबंध का विरोध ?

सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

केरल के मुस्लिम समुदाय पर लगने वाले एक आरोप को लेकर ‘द केरल स्टोरी’ नाम की फिल्म लगातार खबरों में है। इसे भाजपा के शासन वाले राज्यों में टैक्स फ्री किया गया है क्योंकि इसकी कहानी में हिन्दू लड़कियों को मुस्लिम बनाने और उन्हें इस्लाम की जंग लडऩे के लिए दूसरे देशों में भेजने की कहानी है।

इस फिल्म को बढ़ावा देने के लिए जो शुरुआती बातें खबरों में आईं उनके मुताबिक फिल्म में 32 हजार लड़कियों के गायब होने का जिक्र बताया गया, लेकिन इस पर आपत्ति होते ही कम से कम ट्विटर मीडिया पर इन्हें तीन लड़कियां कहा जाने लगा।

हकीकत से परे इस कहानी में लव-जिहाद नाम की तोहमत को बढ़ावा दिया गया है, और इसे कर्नाटक विधानसभा चुनाव के ठीक पहले रिलीज किया गया, लगातार इस पर टीवी की बहसें छेड़ी गईं, देश भर में जगह-जगह भाजपा मंत्री-मुख्यमंत्री यह फिल्म देखने पहुंचे, लोगों को इसे मुफ्त में दिखाने का इंतजाम किया गया क्योंकि इसमें देश के मुस्लिम विरोधी संगठनों का यह नारा पुख्ता होता है कि मुस्लिम नौजवान एक लव-जिहाद चला रहे हैं।

उससे भी आगे बढक़र इस फिल्म का प्रचार बताता है कि केरल में 32 हजार लड़कियां गायब हैं, और उन्हें इस्लाम में लाकर इराक और सीरिया में जंग के लिए भेजा गया है। इस फिल्म के डायरेक्टर ने 2018 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी कि 33 हजार हिन्दू और ईसाई लड़कियों को मुस्लिम बनाने की एक अंतरराष्ट्रीय साजिश पर काम किया गया है ताकि केरल को एक इस्लामिक राज्य बनाया जा सके।

फिल्म की कहानी में हकीकत में तीन महिलाओं का जिक्र है, लेकिन इसके प्रचार में 32 हजार, 33 हजार का जिक्र किया जा रहा है। इसके डायरेक्टर बरसों से इसी तरह का प्रचार करते आए हैं। फिल्म सेंसर बोर्ड से पास हो चुकी है, और किसी भी अदालत ने इस पर रोक लगाने से इंकार कर दिया है।

इस फिल्म को बहुत बुरी तरह साम्प्रदायिक झूठ फैलाने और तनाव खड़ा करने का हिन्दुत्ववादी काम बताया जा रहा है, और केरल में आजादी से अब तक सत्ता में आने वाली दोनों पार्टियों, सीपीएम और कांग्रेस ने इसका विरोध किया है। अभी पिछले हफ्ते पश्चिम बंगाल सरकार ने राज्य में इस पर रोक लगा दी ताकि साम्प्रदायिक नफरत में कोई हिंसा न हो, लेकिन इस पर सुप्रीम कोर्ट ने उसे नोटिस जारी किया है।

हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में हाल के बरसों में कश्मीर फाईल्स से लेकर कुछ दूसरी फिल्मों तक का जिस तरह से चुनावी-राजनीतिक इस्तेमाल हुआ है, वह लोकतंत्र के लिए एक अभूतपूर्व और अनोखा हथियार है। अभिव्यक्ति की आजादी लोगों को मनचाहे आरोपों सहित कोई कहानी लिखने और उस पर फिल्म बनाने की आजादी देती है, लेकिन किसी भी लोकतंत्र की कोई भी आजादी बिना जिम्मेदारियों की नहीं रहती है।

अगर किसी की कहानी या फिल्म किसी समुदाय के खिलाफ एक झूठ फैलाकर लोगों के मन में उनके प्रति नफरत पैदा करती है, उससे साम्प्रदायिक हिंसा पैदा की जा सकती है, तो वह व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और देश-प्रदेश या समुदाय के हिफाजत के हक के बीच एक टकराव रहता है। पश्चिम के जो अधिक विकसित लोकतंत्र हैं वे अपने एक-एक कार्टून की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करते हुए कितने ही आतंकी हमले झेल लेते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान जैसे देश में जहां पर करीब 15 फीसदी मुस्लिम आबादी है वहां अगर पूरी आबादी को बदनाम करने के लिए ऐसी साजिश की जाती है, उसका चुनावी इस्तेमाल किया जाता है, उसे कोई पार्टी अपने बाकी संगठनों और अपनी सरकारों के साथ मिलकर खुला बाजारू बढ़ावा देती है, देश में नफरत फैलाने में भागीदार बनती है, तो फिर राज्य चलाने वाली कुछ सरकारों को यह हक है कि वे अपने राज्य को साम्प्रदायिक हिंसा की आग से बचाने के लिए इस तरह की रोक लगाएं। यह रोक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नहीं है, यह झूठ पर आधारित नफरत फैलाने की, हिंसा फैलाने की साजिश पर रोक है।

सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल सरकार को नोटिस जरूर दिया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट को संविधान पर आधारित फैसले देने हैं, कोई राज्य नहीं चलाना है। राज्य या केन्द्र सरकारों को बहुत से अधिकार इसीलिए मिले रहते हैं कि वे कानून में लोगों को मिले अधिकारों को समय-समय पर रोक सकें। जब बिना किसी जनहित वाले किसी मुद्दे से जनहित का बहुत बड़ा नुकसान होने का खतरा हो, तो कानून की किताब बहुत काम की नहीं रह जाती।

कानून की किताब अगर हर मामले में असरदार रहती, तो देश में आज इतनी साम्प्रदायिक नफरत फैलनी ही नहीं थी। एक तरफ तो सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही हेट-स्पीच के खिलाफ बड़े कड़े हुक्म दिए हैं, और राज्य सरकार के छोटे-छोटे अफसरों को भी जिम्मेदार ठहरा दिया है कि उनके इलाके में अगर कोई नफरत की बात करे, तो उस पर कार्रवाई करना उनकी जिम्मेदारी है, और अगर वे खुद होकर एफआईआर दर्ज नहीं करेंगे, तो उनके खिलाफ अवमानना का मुकदमा चलाया जाएगा।

अब यह तो पूरी की पूरी फिल्म ही हेट-स्पीच है, इसे तो खुद सुप्रीम कोर्ट के सामान्य आदेश के मुताबिक इजाजत नहीं मिलनी थी, लेकिन फिल्मी अंदाज में, कहानी की शक्ल में रख देने से नफरत मासूम तो नहीं हो जाती। फिर आज के वक्त में सुप्रीम कोर्ट से किसी फिल्म को मंजूरी मिल जाना उसकी मासूमियत का सर्टिफिकेट नहीं हो सकता।

पिछले सात बरसों में सारा का सारा सेंसर बोर्ड जैसे लोगों को मनोनीत करके बना है, उन लोगों की सोच का एक सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है। इसलिए चुनाव को ध्यान में रखकर समय-समय पर ऐसे फिल्मी हमले अगर इस देश के अमन-चैन पर होंगे, अगर फिल्मों से किसी धर्म के प्रति दहशत और नफरत फैलाई जाएगी, तो फिर उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बचाना जायज नहीं है, फिर चाहे सेंसर बोर्ड ने ही उसे जायज क्यों न ठहरा दिया हो।

एक विचारधारा पर हमलावर तरीके से काम करने वाली सरकार एक-एक करके तमाम मनोनीत जगहों पर अपने हमख्याल लोगों को ही बिठाती है, इसलिए जो लोग तरह-तरह की फाईल्स बना रहे हैं, उन्हीं के वैचारिक भाई-बहन इन फाईल्स को मंजूर कर रहे हैं।

हिन्दुस्तान के आज के माहौल में किसी राज्य सरकार को लगता है कि किसी फिल्म या उपन्यास से वहां तबाही आ सकती है, बुरी तरह साम्प्रदायिक हिंसा फैल सकती है, तो उस पर रोक लगाना उसका जायज काम है।

और यह फिल्म ममता बैनर्जी के खिलाफ नहीं बनी है, यह फिल्म केरल में कम्युनिस्ट सरकार को परेशान कर रही है जिस पार्टी से ममता की कोई मोहब्बत भी नहीं है। 1988 में राजीव गांधी की सरकार ने सलमान रुश्दी की किताब सेटेनिक वर्सेस पर बैन लगाया था, और ऐसा करने वाली वह दुनिया की पहली सरकार थी।

लोग इस बात को कहते हैं कि ईरान के प्रमुख अयातुल्ला खुमैनी ने भी जब रुश्दी के खिलाफ फतवा नहीं दिया था, तब हिन्दुस्तान उसे प्रतिबंधित कर चुका था। ईरान में इस किताब को लेकर धार्मिक दंगे का खतरा नहीं था, जो कि हिन्दुस्तान में था, यहां का मुस्लिम समुदाय अगर इसे इस्लाम विरोधी ईशनिंदा मानकर इसके खिलाफ सडक़ों पर हिंसा करने लगता, तो अभिव्यक्ति की यह स्वतंत्रता हिन्दुस्तान पर बहुत ही भारी पड़ती।

लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि 33 बरस पश्चिम बंगाल पर राज करने वाले वामपंथियों ने भी वहां तसलीमा नसरीन की किताब पर एक वक्त रोक लगाई थी। हालांकि वह किताब मुस्लिम दकियानूसी लोगों के खिलाफ थी, धर्मान्धता के खिलाफ थी, और ये सब वामपंथी नीतियों के हिसाब से ठीक भी था, लेकिन सरकार चलाने की अपनी जिम्मेदारी होती है।

वह रोक बाद में कलकत्ता हाईकोर्ट ने हटाई थी। अभी 2017 में तसलीमा नसरीन ने यह कहा था कि उनके लिए तो ममता बैनर्जी वामपंथियों के मुकाबले अधिक कड़ी साबित हुई हैं और उन्हें बंगाल आने की इजाजत नहीं दी जा रही है, उनकी किताब पर प्रतिबंध लगाया गया है, और उनके लिखे हुए एक टीवी सीरियल पर भी रोक लगाई गई है।

लोकतंत्र एक बहुत ही लचीला तंत्र जरूर है, और यह इतना लचीला है कि यह अपने भीतर अपने आपको नुकसान पहुंचाने वाले लोगों, उसे खत्म करने वाले लोगों को भी जगह देता है, उन्हें भी बर्दाश्त करता है। यह कुछ वैसा ही है जैसा कि कोई अपने घर में हत्यारे, डकैत, और बलात्कारियों को जगह दे, और वे उस घर में ही सब जुर्म करके जाएं।

यह लोकतंत्र जितनी आजादी देता है, यह उसकी जिम्मेदारी है कि वह निजी आजादी के साथ-साथ सार्वजनिक हिफाजत और सार्वजनिक हक के सम्मान की जिम्मेदारी भी दे, वरना कोई दूसरी विचारधारा अगर गुजरात फाईल्स बनाने लगे, 1984 फाईल्स बनाने लगे, अयोध्या फाईल्स बनाने लगे, तो देश का क्या हाल होगा? लोगों को याद रखना चाहिए कि आज केरल-फाईल्स पर रोक जिन्हें आजादी पर हमला लग रही है, उन लोगों की सरकार ने गुजरात दंगों पर बनी न सिर्फ फिल्मों को, डॉक्यूमेंट्री को, बल्कि हाल ही में बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री को भी रोका है।

हाल के बरसों में नफरत और हिंसा फैलाने की, किसी धर्म को लेकर दहशत फैलाने की हर किस्म की कोशिश चल रही है। पश्चिम में इसे इस्लामोफोबिया नाम से बुलाया जाता है, हिन्दुस्तान में लव-जिहाद जैसा एक स्थानीय शब्द इसके लिए गढ़ लिया गया है। जो राज्य नफरत और हिंसा की ऐसी साजिशों पर, खतरों पर रोक लगाना चाहते हैं, यह उनका जायज हक है। हम ममता बैनर्जी के लगाए रोक के पक्ष में हैं क्योंकि यह उनकी निजी आलोचना करने वाले किसी कार्टून पर रोक नहीं है, यह व्यापक जनजीवन की हिफाजत की रोक है। सुप्रीम कोर्ट को अगर कुछ करना है, तो उसे सेंसर बोर्ड से जवाब-तलब करना चाहिए कि उसकी मंजूरी दी हुई इस फिल्म से कैसे खतरे खड़े हो रहे हैं, यह किस किस्म की साजिश दिख रही है, क्या बोर्ड ने इस पर गौर किया है?

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