#विजयमनोहरतिवारी (सूचना आयुक्त, मध्यप्रदेश )
मैंने सुना है कि रामगढ़ में भारी हलचल है। अब बुजुर्ग हो चुके गब्बरसिंह के कई पूर्व साथी और समर्थक एकजुट हो रहे हैं। इस बार उनके इरादे अलग हैं। वे अपने सरदार की स्मृतियों को इतिहास में अमर करने निकले हैं। उनका ह्दय परिवर्तन हो चुका है। उनका दृष्टिकोण सकारात्मक है। जो हर बुराई में अच्छाई को देख ले, वही सच्चा सकारात्मक है।
ये लोग ऐसे ही रूप में सामने आए हैं। इनमें कुछ एेसे हैं जो गब्बरसिंह के साथ ठाकुर की अंतिम लड़ाई में जय और वीरू की गोलियों से बचकर पहाड़ी चट्टानों के पीछे जा छुपे थे। कुछ घोड़ों पर सवार होकर जंगलांे में भाग गए थे। कई ऐसे हैं, जिनसे गब्बरसिंह के मधुर संबंध थे। वे गब्बर की जरूरत का हर सामान पहुंचाया करते थे। ये सब मिलकर अपने प्रिय सरदार के अनेक प्रसंगों पर चर्चा कर रहे हैं। उनके वचनों को लिपिबद्ध कर रहे हैं। उन्हें गब्बर में एक मसीहा दिखाई दिया है।
-‘कितने आदमी थे?’
गब्बर के आधुनिक व्याख्याकारों ने इस अमृत वचन की विवेचना यूं की है कि सरदार के आदेश से गरीबों के लिए लगातार लंगर चला करता था। हर रोज शाम को जब कालिया लंगर के प्रबंधन से लाैटता तो सरदार यही सवाल करते। वे यह पूछते थे कि आज कितने गरीबों ने आकर भोजन किया?
-‘पचास-पचास कोस दूर तक…।’
व्याख्याकारों ने इस कथन के आधार पर रामगढ़ के चारों तरफ पचास कोस की परिधि को सरदार की स्मृति में सालाना परिक्रमा का पथ बनाना तय किया है। उनका कहना है कि यह सरदार का आध्यात्मिक ऊर्जा क्षेत्र था, जिसके बारे में माएं अपने बच्चाें को बाल्यकाल से ही अवगत करा दिया करती थीं।
-‘ये हाथ मुझे दे दे…।’
गब्बर के साथी विशेषज्ञों ने विवेचना की कि इस वचन के माध्यम से गब्बर ने रामगढ़ इलाके के हर घर से मदद मांगी। हर युवा से अपील की कि वह अपने हाथों की ताकत उसके मिशन में लगाने के लिए आगे आएं ताकि रामगढ़ की धरती को ठाकुरों के अन्याय और अत्याचार से मुक्ति दिलाई जा सके।
गब्बरसिंह के प्रत्येक कथन को स्मृति के आधार पर संकलित करने के लिए एक दल का गठन किया गया है। गब्बर के सबसे निकट सहयोगियों में से एक श्रीमान् सांभा इस दल के मुखिया हैं। वयोवृद्ध सांभा अंतिम लड़ाई में बहुत घायल अवस्था में जीवित रह गए थे, जिन्हें मृत मानकर छोड़ दिया गया था। उनकी देखरेख में गब्बर के वचनों पर एक किताब बनाई जा रही है।
आखरी जंग में जय नाम का बदमाश मारा गया। वीरू बचा रह गया। जिस पहाड़ी चट्टानों के आसपास यह जंग हुई, वहां धोखे से ठाकुर ने गब्बरसिंह को घेर लिया। अन्याय और शोषण के विरुद्ध यह इतिहास की भयंकर लड़ाइयों में से एक है, जिसमें गब्बर ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। सांभा और कालिया उसके दाएं और बाएं हाथ की तरह लड़े। कोई इस चट्टान से लुढ़का। कोई उस घाटी के पीछे गिरा।
सांभा को यहीं मरा मानकर छोड़ दिया गया था, मगर वह जख्मी था और आखिरकार गब्बरसिंह की वीरता के किस्से सुनाने के लिए बच गया। वह सिर के बल पथरीली चट्टान पर गिरा था। जिंदा तो बच गया लेकिन चेहरा बिगड़ गया और आवाज टूटफूट गई। अब वह साफ नहीं बाेल पाता। बस, इशारों में ता…ता…ता कहता है और उसे सुनने वाले अंदाजा लगाकर दर्ज कर लेते हैं कि वह गब्बर का कौन सा अमृत वचन बता रहा है।
एक और दल गब्बर के तौरतरीकों और रोजमर्रा की घटनाओं को दर्ज कर रहा है। इसमें बंजारों के सरदार को भी शामिल किया है, जो हर साल गब्बर के मेहमान हुआ करते थे। वह सुंदर और भाग्यशाली नृत्यांगना भी इस दल में है, जो गब्बर के समक्ष अप्सरा के अंदाज में स्वागत नृत्य किया करती थी। वह अब जर्जर हो चुकी है। लेकिन उसके पास गब्बर के प्रेम और स्त्रियों के प्रति सम्मान की अनेक स्मृतियाँ हैं। गब्बर को वह उस अंधकारयुग में नारी सशक्तिकरण की मिसाल मानती है, जिसने अबला नारी को खुलकर समाज के सामने आने के बराबरी के हक दिए। गब्बर न होते तो दुनिया उसे कैसे जानती? यह गब्बर की कलाप्रियता ही थी कि बंजारांे की गुमनाम नृत्य, संगीत और गायन की प्राचीन लोक कला संसार के सामने आई।
गब्बर के प्रेरक मानवीय रूप को संसार के सामने दर्शाने के लिए कुछ कठोर कायदे तय कर दिए गए हैं। सबसे पहले तो गब्बरसिंह का नाम इस तरह हल्के में आज के बाद कोई नहीं लेगा। उनके नाम के पहले ‘परम स्मरणीय सरदारों के सरदार’ लिखा जाएगा और नाम के उपरांत कहा जाएगा- ‘शांतिप्रिय स्वर्गाधिपति।’ इस प्रकार उनका संपूर्ण संबोधन यह होगा- ‘परम स्मरणीय सरदारों के सरदार गब्बरसिंह शांतिप्रिय स्वर्गाधिपति।’
इतिहास में दर्ज बड़ा आदमी बड़े काम से नहीं होता, नाम से ही होता है। सुलतानों और बादशाहों के नाम देख लीजिए। तो यह हुक्म हुआ कि आज के बाद उनका नाम जहां कहीं भी लिखा या बोला जाएगा, इसी रूप में उच्चारित होगा। यह उनके प्रति उनके अनुयायियों की सर्वोच्च आदरभावना होगी। वे सामान्य नागरिक नहीं बल्कि देवदूत थे, जो रामगढ़ की पवित्र धरती पर लोकमंगल के लिए आए थे। उन्हांेने सदियों से जारी संपन्न सामंतों के अन्याय और शोषण के विरुद्ध अपना जीवन समर्पित कर दिया था।
कुल कथा यह बुनी गई है कि रामगढ़ एक समय अंधकार युग में था। वहां एक ठाकुर का आतंक था, जो पुलिस की नौकरी में भी था। एक तो ठाकुर। ऊपर से पुलिस की वर्दी। करेला और नीम चढ़ा। नागरिक त्राहिमाम-त्राहिमाम कर उठे थे। वे हर रोज गांव के शिव मंदिर में भोलेनाथ से उद्धार की प्रार्थना किया करते थे। गांव की मस्जिद से इमाम भी अपने ऊपरवाले से किसी फरिश्ते को भेजने की दरख्वास्त दिन में पांच बार लाउड स्पीकर से किया करते थे ताकि ऊपरवाले तक ठीक से आवाज चली जाए। मंदिर में लाउड स्पीकर नहीं था, क्योंकि प्रार्थना के लिए शिवजी की विशाल प्रतिमा सामने ही थी। गांव में बिजली नहीं थी, लाउड स्पीकर से आवाज ठीक से ऊपर तक चली जाए इसके लिए इमाम का बेटा अहमद जबलपुर से अपने मामू से एक बैटरी उधार लेकर आया था।
ठाकुर को जब अपने विरुद्ध हिंदू-मुस्लिम एकता का ज्ञान हुआ तो उसे अपनी सत्ता हाथ से फिसलती नजर आई। यह रामगढ़ में गंगा-जमनी रवायत की मिसाल थी, जिसने ठाकुर की नींद हराम कर दी। अब वह जेल से दो शातिर अपराधियों को लेकर आ गया। उसने दाेनों को सुपारी दी थी। उनके नाम इतिहास में जय और वीरू के नाम से दर्ज हैं। दोनों ही अव्वल दर्जे के बदमाश थे, जिन्होंने आकर गांव का अच्छा-भला माहौल बिगाड़ दिया। जय ठाकुर की बेवा बहू पर डोरे डालने लगा और वीरू ने बेचारी बसंती का पीछा शुरू कर दिया। अब ठाकुर के खिलाफ अंडरकरेंट सड़क पर आ गया। जाहिलियत के इस दौर में एक फरिश्ते की उम्मीद में मंदिर और मस्जिदों से प्रार्थनाओं के स्वर ऊंचे होते गए।
एक दिन एक नहीं दो ‘औसत दरजे के फरिश्ते’ अपने कुछ साथियों के साथ रामगढ़ आए। उनके शुभ नाम सांभा और कालिया थे। वे यह खबर लेकर आए कि ‘महानतम् फरिश्ता’ रामगढ़ की सरहद में आ चुका है और अब लड़ाई आरपार की होगी। सिर्फ रामगढ़ ही नहीं, संसार के हर ठाकुर के विरुद्ध संग्राम घोषित कर दिया गया। इस नेक कार्य में मदद के लिए गांव वालाें ने खुश होकर अनाज, आटा, जेवर सब कुछ उन ‘औसत दरजे के फरिश्तों’ की झोली में डाल दिया। अब गब्बरसिंह आखिरी उम्मीद थे, जिन्हें ऊपर वाले ने ही अज्ञात स्थान से रामगढ़ भेजा था।
एक संघर्ष के दौरान ठाकुर के दांत खट्टे कर दिए गए। उसके बेलगाम और अत्याचारी बेटों को गब्बरसिंह ने बारी-बारी से उड़ा दिया। ठाकुर के वंश का सफाया हो गया। गांव वालों ने इस मौके पर होली के जलसे में जमकर नाचगाना किया। अब वे नियमित रूप से स्वेच्छा से गब्बर को अनाज, अाटा, रुपए और जेवर देने लगे ताकि रामगढ़ अंधकार से बाहर आ जाए और गब्बरसिंह नाम का यह मसीहा उनके बेहतर भविष्य की योजनाएं बनाए।
अगले युद्ध में गब्बरसिंह ने पचास कोस की परिधि में अपना नाम चमकाया। उसने तिलमिलाए ठाकुर को पकड़वाकर उसके दोनों हाथ काट डाले और लाचार बनाकर छोड़ दिया ताकि दुनिया वाले सबक लें! इस फतह पर गांव वालों ने मिलकर कौमी एकता के जलसे किए। मुशायरों में शायरियां पढ़ी गईं। मन्ना डे और किशोर कुमार की आवाज में दोस्ती के गाने झूमझूमकर गाए गए। तकरीरों के लिए मंच पर मुस्कुराते हुए इमाम साहब मेहमाने खुसूसी हुए। ठाकुर अपनी उजाड़ हवेली में दाँत पीसता रह गया। उसके सिक्के की चमक जा चुकी थी। उसकी कलई खुल चुकी थी। उसके दोनों सुपारी किलर किसी काम न आए। एक शाम होते ही माउथ ऑर्गन बजाता रह गया, दूसरा बंसती की घोड़ी को घास डालता रह गया!
गब्बरसिंह ने अपने प्राणों की आहुति रामगढ़ के उद्धार के लिए दे दी। मगर ठाकुर भी ज्यादा समय जिंदा नहीं रहा। बसंती को लेकर वीरू रेगिस्तानों के पार कहीं चला गया, जहां उसने और उसकी औलादों ने गब्बरसिंह की वीरता की कहानियां दूर देशों में सुनाईं।
वक्त की बात है। अब गब्बरसिंह मानवता की मिसाल हैं। गब्बरसिंह मानवता के मसीहा हैं। गब्बरसिंह ने रामगढ़ का उद्धार किया। गब्बरसिंह ने दबे-कुचलांे को ताकत दी। गब्बरसिंह ने महिलाओं को आगे बढ़ना सिखाया। गब्बरसिंह सत्यवादी थे। जीवन भर सत्य के लिए अडिग रहे। गब्बरसिंह का जीवन सादगी से भरा था। वह एक ही जोड़ी कपड़े में जीवन भर रहा। उसके कोई महंगे शौक नहीं थे। वह लोकल खैनी ही खाते थे। उनकी आवाज में असर था। पचास कोस की परिधि में उनकी आवाज पर बच्चे भी ध्यान दिया करते थे। माएं किस्से सुनाया करती थीं।
ऐसी महान हस्ती को रमेश सिप्पी नाम के फिल्ममेकर ने बेहूदा ढंग से अपनी फिल्म में परोसकर करोड़ों रुपए कमाए। उन्हंे डकैतों का सरदार बता दिया, जबकि वे देवदूत थे। महान संदेशवाहक थे, जो गांव वालों की संयुक्त प्रार्थनाओं के फलस्वरूप अपने संपूर्ण अवतार में रामगढ़ के पहाड़ों में अवतरित हुए थे। रामगढ़ से डायरेक्ट एक्शन का फरमान श्रीमान सांभा ने जारी किया है और एक सशस्त्र दल मुंबई भेजा गया है ताकि वह फिल्म की रीलों को आग के हवाले कर दे और सिप्पी को सबक सिखाए ताकि लोग कयामत तक याद रखें!
‘सरदारों के सरदार’ के एक-एक वचन को याद कर-करके दशकों बाद संग्रहीत करने के लिए रामगढ़ में सभाएं हो रही हैं। जिसे जो याद आ रहा है, दर्ज किया जा रहा है। अंतिम वचन दर्ज होने पर इसे एक ग्रंथ के रूप में संसार की आने वाली पीढ़ियों को समर्पित कर दिया जाएगा, इस चेतावनी के साथ कि यह गब्बरसिंह के अमृत वचनों का अंतिम ग्रंथ है। इसमें प्रलय तक कोई परिवर्तन स्वीकार्य नहीं होगा। कालिया के एक दूर के पढ़े-लिखे रिश्तेदार खबरलाल ख्याली ने ग्रंथ का नाम सुझाया है-‘गब्बर ग्रंथ।’
‘परमस्मरणीय गब्बरसिंह शांतिप्रिय स्वर्गाधिपति’ के सह्दय सहयोगियों में से ज्यादातर बुजुर्ग हो चुके हैं और जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं। सरदार ने उन्हें जीवन भर दिल खोलकर मदद दीं। हर युद्ध में प्राप्त होने वाले धन और साधन खुले मन से बांटे। वे कभी खानाबदोश दरिद्र थे, जिन्हें सरदार ने मालामाल बना दिया था और अब उनकी अगली पीढ़ी इज्जत से जीवन जी रही है। वे अपने सरदार के प्रति कृतज्ञ भाव उनके दर्शन को आगे बढ़ाने के लिए मदद के लिए आगे आए हैं।
रामगढ़ की पचास कोस की परिधि को कब्जे में ले लिया गया है, जहां अब आने वाले कल का बड़ा तीर्थ बनेगा। दूर-दूर से लोग आकर इसकी परिक्रमा करेंगे। ‘परम स्मरणीय सरदारों के सरदार गब्बरसिंह शांतिप्रिय स्वर्गाधिपति’ की गगनचुंबी प्रतिमा स्थापित करने के सुझाव को श्रीमान सांभा ने चिढ़कर खारिज करा दिया है। उसकी आवाज के इशारों के बारे में व्याख्याकारों ने फरमाया कि सरदार के परम साथी श्रीमान सांभा का मतलब है कि मूर्ति बनाना खतरे से खाली नहीं होगा। गब्बरसिंह का चेहरा, दाढ़ी, खैनी चबाते गंदे दांत और बंदूक वगैरह देखकर कोई यकीन नहीं करेगा कि वह देवदूत थे। इसलिए हमें साधारण समाधि से काम चलाना चाहिए, जिस पर रामगढ़ की लोकल लिपि में केवल नाम लिखा जाए। वैसे भी सरदारों के सरदार सादगीपूर्ण जीवन जीते थे।
गिरोह के एक पुराने साथी ने दाढ़ी खुजाते हुए कहा कि ‘सरदारों के सरदार’ के मानवता के प्रति महान योगदान से हमें अपनी कालगणना अलग करनी चाहिए। एक अलग कैलेंडर बनाना चाहिए। अब किसी को यह तो पता था नहीं कि गब्बरसिंह कब, कहां और किस कुल मंे जन्में थे। श्रीमान सांभा के इशारे काम आए। पता चला कि कभी गब्बरसिंह ने ही सांभा को कभी सूचित किया था कि वे सावन के महीने में पैदा हुए थे। इसीलिए सब तरफ उन्हें हरा-हरा दिखता था। गहरे हरे रंग का लिबास उसका सबूत है। गब्बरसिंह ने जीवन भर सफेद या गुलाबी रंग के कपड़े नहीं पहने। इसलिए सावन के महीने से शुरू होने वाले एक कैलेंडर का गुणाभाग शुरू हो गया।
काले रंग के झंडे पर दो सफेद बंदूकों के निशान छापकर बंजारों की टीम का वह बूढ़ा नृत्यकार ले आया, जो नृत्यांगना के साथ झूमझूमकर ‘मेहबूबा-मेहबूबा…हू-हू’ जैसा मंत्र गाते हुए रूहानी अहसास किया करता था। अब यह युगों के लिए गब्बरसिंह की सेना की ध्वजा थी, जिसे सब सरदारों ने और सरदारों के श्रीमान सुपुत्रों ने सिर झुकाकर सलाम किया। इस कारसाजी के लिए उस खूसट नृत्यकार को भी बड़ी-बड़ी आसमानी-सुलतानी उपाधियाँ प्रदान की गई हैं।
सर्वज्ञात है कि गब्बरसिंह के ठिकाने पर न काली माता की प्रतिमा थी, न जय भवानी की कोई फोटो, न त्रिशूल और न ही कभी गब्बरसिंह ने शिवजी के मंदिर में मन्नत का घंटा टांगा था। गब्बरसिंह ने कभी माथे पर काला टीका या पगड़ी भी नहीं लगाई थी। वे कभी दुआ पढ़ने रामगढ़ की इकलौती मस्जिद की सीढ़ियाँ भी नहीं चढ़े थे। इससे सिद्ध है कि वे निराकार ब्रह्म के कट्टर उपासक थे और उनकी आस्था किसी प्रचलित धर्म या धार्मिक प्रतीक में नहीं थी। इसलिए तय पाया गया कि गब्बरसिंह की सेना भी ऐसा ही मानेगी और जहां कहीं भी कोई धार्मिक प्रतीक दिखाई देगा, धूल में मिला देगी।
अब रामगढ़ से जबर्दस्त शोर उठा। आसमान तक नारे गूंजे। घोड़ों की टापों से पथरीली पहाड़ी गूंज गई। रामगढ़ के सारे पुराने प्रतीक धूलधूसरित हो गए। धरती के उत्तरी ध्रुव तक ठाकुरों की रूह कांप गई।
( भले ही ग्रेट गब्बर रामगढ़ की पावन धरती के लोक कल्याण के लिए आए किंतु समय के साथ उनका पंथ धरती पर एक और गहरा कूप बनेगा, जिसके भावी अनुयायी मंडूक की भाँति कूप को ही संसार का सबसे विस्तृत और अथाह सागर क्लेम करेंगे। हर पंथ की यही परिणति निश्चित है। इसमें महान गब्बर का दोष नहीं है…!)
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