पंकज मुकाती
पंजाब में कांग्रेस के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने इस्तीफा दिया। क्रिकेट से लॉफ्टर शो और फिर राजनीति में आये नवजोत सिद्धू अब पंजाब में कांग्रेस का चेहरा हैं। सिद्धू अच्छा बोलते हैं, पर उनकी राजनीतिक समझ अमरिंदर जैसी होगी इसमें शक है। कैप्टन अमरिंदर अब दर्शक दीर्घा में हैं।
कांग्रेस हाईकमान ने भी उनसे किनारे का मन बना ही लिया है। क्या कांग्रेस के लिए सिद्धू फ़ायदेमंद साबित होंगे, ये तो वक्त बताएगा। पर सिद्धू के अब तक के व्यवहार से वे किसी भी नजरिये से संजीदा, समझदार नहीं लगते है।
वे जैसी क्षणिक मस्ती वाली टिप्पणी करते हैं, वैसी ही उनकी राजनीति भी साबित हो सकती है। राजनीति गति सेज्यादा ठहराव मांगती है। इसमें क्षणिक मस्ती नहीं, गंभीर चिंतन जरुरी होता है। सिद्धू एक अधीर शख्स है। क्रिकेट के मैदान में भी वे कप्तान को शर्मिंदा कर चुके हैं। वे एक बार इंग्लैंड में बीच सीरीज में बिना कप्तान को बताये गुस्सा होकर भारत लौट आये। यही अनुशासन हीनता उनकी राजनीति में भी जारी है।
पहले वे भाजपा में गए, फिर तमतमाकर कांग्रेस में आ गए। मंत्री बने, पर क्रिकेट की तरह राजनीति की पिच पर भी वे अपने कप्तान से नाराज रहे। विभागके बजाय लाफ्टर शो में व्यस्त रहे। कप्तान को उनको हटाना ही पड़ा।
मसखरों और अदाकारों ने हमेशा राजनीति से समझदार नेताओं को बाहर धकेला, बाद में खुद भी घर बैठ गए। इसी मसखरी के चलते देश की राजनीति में बुद्धिजीवियों की जगह ही नहीं बची।
पार्ट टाइम और ग्लैमर की दुनिया से राजनीति में आये लोग यहां ज्यादा टिके नहीं, पर इनके कारण कई अच्छे राजनेताओं का करियर खत्म हो गया। सबसे बड़ी मिसाल बॉलीवुड के सुपर स्टार अमिताभ बच्चन हैं, जो राजनीति में अपनी सांसदी का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाए। बीच में ही छोड़कर चले गए।
अमिताभ इलाहबाद से राजनीति के दिग्गज हेमवती नंदन बहुगुणा (लोकदल ) के सामने मैदान में उतरे। जीते भी। दो बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे बहुगुणा की राजनीतिक समझ के जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी भी कायल थे।
नेहरू के मंत्रिमंडल में कई दिनों तक मनचाहा पद न मिलने के कारण बहुगुणा शामिल तक न हुए। राजनीतिक पंडित ग्लैमर के आगे हार गए। इसके बाद बहुगुणा कभी सक्रिय नहीं हो सके। ग्लैमर वाले अमिताभ को तो लौटना ही था।
ऐसे ही मुंबई से वरिष्ठ भाजपा ने राम नाईक बेहूदा कॉमेडी वाले अभिनेता गोविंदा से चुनाव हार गए। ऐसे ही सुपर स्टार राजेश खन्ना के सामने लालकृष्ण आडवाणी 1991 में दिल्ली से चुनाव हारते-हारते बचे। राम लहर के दौर में भी आडवाणी सिर्फ 1500 वोट से जीत सके। राजनीति में ऐसे मसखरों के चलते कई बड़े नेता हासिये पर चले गए, राजनीति का ‘बौद्धिक सत्यानाश’ तो हम देख ही रहे हैं।
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