स्वतंत्रता प्रेस की प्राथमिकता नहीं रही। पेड न्यूज, फैक न्यूज, एडवरटोरियल, इम्पैक्ट विज्ञापन, पैकेज, डिजिटल समाचार जैसे कई अवतार पैदा हो गए. वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के अवसर पर पढ़ें ‘पत्रिका’ समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विचारोत्तेजक अग्रलेख-
गुलाब कोठरी ((संपादक,राजस्थान पत्रिका समूह )
संवाद, जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। संवाद इतिहास से भी रहता है और भविष्य के साथ भी। वर्तमान का संवाद जीवन संचालन के लिए होता है। भावी संवाद अतीव महत्वपूर्ण होता है। दृष्टि महत्वपूर्ण है, शब्द नहीं।
जीवन-दर्शन से जुड़े सभी गहन विषयों के अर्थ भविष्य में ही प्रकट होते हैं। जैसे कि हमारे वेद, पुराण और गीता। छिछले, थोथे, स्वार्थपूर्ण और स्थूल दृष्टि वाले संवाद अल्पजीवी होते हैं। समाचार अधिकांशत: इसी श्रेणी में आते हैं। इनमें ज्ञान कम, सूचनाएं अधिक रहती हैं, जिनका तात्कालिक महत्व होता है।
प्रेस, मास मीडिया का अंग है जो विदेश से आया है, उसी संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। हमारा संवाद आत्मा पर आधारित रहा है जबकि विदेशी संवाद जीवन की भौतिक अवधारणाओं तथा वर्तमान गतिविधियों का दर्पण है। उसमें अधिदेव नहीं है।
प्रेस वहां संवाद का साधन मात्र है। वहां आस्था की अनिवार्यता, विश्वसनीयता, राष्ट्रहित सब-कुछ सापेक्ष भाव में है। भौतिकवाद, अवसरवाद, व्यापारिक हित भी केन्द्र में होते हैं, बल्कि सर्वोपरि होते हैं।
विश्व पटल पर जिस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं, उनकी सूचना तो मीडिया/प्रेस दे सकता है, परिवर्तन को दिशा नहीं दे सकता। गरीब राष्ट्र जहां लोकतंत्र-स्वायत शासन की मांग कर रहे हैं, वहीं समृद्ध-विकसित देश प्रेस को जेब में रखकर चल रहे हैं।
स्वतंत्रता की हत्या करने का दु:साहस करने में व्यस्त दिखाई दे रहे हैं। वहां प्रेस को जीवित रहना है, तो गुलामी स्वीकार करके जी सकता है। रूस-चीन जैसे विशाल राष्ट्रों ने तो सामन्तवाद को भी पीछे छोड़ दिया। क्या रूस का प्रेस पुतिन के विरूद्ध लिख सकता है? जहां सामन्तवाद है, वहां स्वतंत्रता एक मुखौटा मात्र है। क्यों है। यह भी समझने का विषय है।
प्रेस की स्वतंत्रता की भूमिका केवल लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में है। बाकी तो शुद्ध व्यापार है। भारत में पिछले वर्षों में प्रेस ने स्वेच्छा से ही स्वतंत्रता को तिलांजलि दे दी। धन के आगे सब मर्यादाएं तार-तार हो रही हैं। सरकारों से मांगने की एक नई परम्परा चल पड़ी है। मांगने वाला कभी स्वतंत्रता की मांग कर सकता है क्या?
चिन्ता का विषय यह नहीं है कि कोई मांगकर खा रहा है, चिन्ता की बात यह है कि जिसको लोकतंत्र का सेतु माना था, उससे अब कुछ अपेक्षा रख नहीं सकते। सरकारों की तरह ऐसे संस्थान केवल लेने पर उतारू हो गए, समाज को देना ही भूल बैठे।
सरकार की झोली में बैठकर जनता से दूर छिटक गए। ‘चौथा पाया’ बन बैठे। जैसे स्वयंभू नेता बन जाते हैं। तब क्या आवश्यकता है इन संस्थाओं को विशिष्ट दर्जा देने की? वैसे भी देता कौन है?
राजस्थान पत्रिका का इतिहास तो इस स्वतंत्रता के संघर्ष का ही इतिहास है। जहां एक तो अकेला जनतंत्र के हित में संघर्ष करे और बहुमत सरकारों से मांगता रहे, तब संघर्ष का स्वरूप क्या होगा? सरकारें नाराज, तो विज्ञापन बंद।
विज्ञापन चालू, तो भुगतान बंद। जिस तरह कागजों के, स्याही आदि अन्य मदों के भाव कोरोना, रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद बढ़े हैं, विज्ञापन संजीवनी बन गया।
मीडिया का प्रसार भी घटा। आंकड़ों का मकडज़ाल, भ्रष्टाचार जैसे रोग भी बढ़ गए। स्वतंत्रता प्रेस की प्राथमिकता नहीं रही। पेड न्यूज, फैक न्यूज, एडवरटोरियल, इम्पैक्ट विज्ञापन, पैकेज, डिजिटल समाचार जैसे कई अवतार पैदा हो गए।
प्रेस की स्वतंत्रता धार्मिक प्रवचनों की तर्ज पर परम्परा मात्र रह गई। आम आदमी के पास आज समाचार जानने को कई विकल्प उपलब्ध हैं। प्रश्न है तो केवल विश्वसनीयता का, सकारात्मक जीवन संवाद का। राष्ट्र के विकास में भूमिका निभाने का तथा सरकारों के आगे जनप्रतिनिधि बने रहने का। नहीं तो मूल प्रश्न ही खो जाएगा-अब पत्रकारिता की आवश्यकता ही क्या?
यह एक उद्योग बन गया है। कमाने का अधिकार भी है। जनता को इससे क्या? फिर जान भी बचानी है। सरकारें दबाव ही नहीं डालती, जान तक लेने लगी हैं। भारत, विश्व के प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2021 की सूची में 180 में से 142 वें स्थान पर है। तब कहने को क्या रह जाता है! विश्व में सन् 2021 में 293 पत्रकारों को जेल में डाला गया। सन् 2020 में भी 280 जेल गए थे।
राइट्स एण्ड रिस्क एनालिसिस ग्रुप की भारत के संदर्भ में रिपोर्ट कहती है कि सन् 2021 में छह पत्रकारों की हत्या हुई, 108 पत्रकारों व 13 मीडिया संस्थानों पर हमला हुआ। यह तस्वीर भी बयां करती है कि सरकारें भी प्रेस स्वतंत्रता को लेकर बयानबाजी भले ही करती रहें, लेकिन परिणाम तो वही ‘ढाक के तीन पात’।
सारा दही, छाछ हो गया। मक्खन तो जरा सा है। स्वतंत्रता का स्थान स्वच्छन्दता ने ले लिया। अब हम भी विदेशी बनकर जीना चाहते हैं। मेरा हित साधने के लिए किसी का भी अहित करना पड़े। यही नया ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का नारा है। gulabkothari@epatrika.com
(वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे पर गुलाब कोठारी का आलेख साभार प्रकाशित कर रहे हैं )
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