मुलायम, लालू की तरह रामविलास पासवान ने भी अपने कुनबे के हित को जाति से पहले रखा

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सुनील कुमार (संपादक, डेली छत्तीसगढ़ )

किसी के गुजरने पर उसके बारे में अच्छा ही अच्छा कहने को भारतीय संस्कृति माना जाता है। लेकिन हमारा मानना यह है कि अच्छे के साथ-साथ उन लोगों के बाकी पहलुओं पर भी चर्चा होनी चाहिए जो लोग सार्वजनिक जीवन में रहे हैं, जैसे रामविलास पासवान। पासवान बिहार के एक दलित नेता रहे, और उनका बड़ा लंबा राजनीतिक जीवन रहा।

इस लंबे राजनीतिक जीवन में नामुमकिन हद तक लंबा सत्ताकाल रहा। उनके गुजरने पर लगातार लिखा जा रहा है कि छह प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने का उनका तजुर्बा दुनिया में उन्हें एक अनोखा नेता बनाता है, और उनका यह सत्ताकाल तकरीबन लगातार भी रहा। जाहिर है कि अलग-अलग विचारधाराओं की सरकारें आई-गईं, लेकिन पासवान की केन्द्र सरकार में मौजूदगी इमारतों जैसी ही स्थाई बनी रही।

तर्क उनका वही रहता था जो कि दलबदल या गठबंधनबदल करने वाले किसी भी नेता का रहता है कि अपने प्रदेश की जनता या अपनी बिरादरी का हित उसके लिए सबसे ऊपर है, और उनके भले के लिए वे अब नई सरकार के साथ हैं।

पासवान को तो मौसम विज्ञानी कहा जाता था कि उन्हें चुनाव के वक्त ही इस बात का अहसास रहता था कि अगली सरकार किस पार्टी की बनेगी, या किस गठबंधन की बनेगी। 1977 के चुनाव में रामविलास पासवान जनता पार्टी की टिकट पर बिहार के हाजीपुर से संसद पहुंचे थे, लेकिन संसद पहुंचने के पहले वे गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में पहुंच गए थे क्योंकि उनकी जीत इतने अधिक वोटों से हुई थी कि दुनिया में उसका कोई सानी नहीं था।

अब दुनिया में सानी न होने की कई वजहें भी होती हैं इस एक मामले में हिन्दुस्तानी संसदीय सीटें दुनिया के कई देशों के छोटे प्रदेशों से बड़ी हैं, और वहां के छोटे-छोटे चुनाव की लीड भला क्या खाकर हिन्दुस्तानी लीड का मुकाबला कर सकती है? लेकिन पासवान ने तो हिन्दुस्तान में भी लीड का एक इतिहास रचा, और कांग्रेस उम्मीदवार को सवा 4 लाख से अधिक वोटों से हराया।

इसके बाद वे 9 बार सांसद रहे, और केन्द्र में पिछले 30 बरस में दो सरकारों को छोड़ वे हर सरकार में मंत्री रहे। अगर दलबदल या गठबंधनबदल का कोई रिकॉर्ड बन सकता है, तो वह जाहिर तौर पर 6 प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने वाले नेता का ही बन सकता है। लेकिन इसके साथ-साथ पासवान का रिकॉर्ड अधिकतर चुनाव जीतने का भी था।

अब बिहार के सबसे बड़े दलित नेता और देश के दलित नेताओं में एक सबसे बड़े, रामविलास पासवान का नाम अलग-अलग कई वजहों से खबरों में बने ही रहता था। एक अनपढ़ लडक़ी से उनका बाल विवाह हुआ था, और उनकी अपनी राजनीतिक तरक्की के साथ शायद मेल न खाने की वजह से वे पहली पत्नी से अलग हो गए थे, और दिल्ली में अपने राजनीतिक वर्तमान और भविष्य के मुताबिक उन्होंने एक एयरहोस्टेस से दूसरी शादी भी की थी जिससे उनका बेटा चिराग पासवान आज उनकी पार्टी का अध्यक्ष भी है।

पारिवारिक रूप से रामविलास पासवान नकारात्मक खबरों की वजह से ही चर्चा में रहते थे। पहली पत्नी से उनकी बेटी की अभी हाल तक यह शिकायत बनी हुई है कि उन्होंने दूसरी पत्नी के बच्चों, बेटे-बेटियों को जिस तरह पढ़ाया, आगे बढ़ाया, उस तरह पहली पत्नी से हुई बेटियों को मौका नहीं दिया। अब देश का एक सबसे ताकतवर दलित सांसद, और लगभग हमेशा का केन्द्रीय मंत्री अपनी बेटियों को ठीक से न पढ़ाए, और महज बेटे को आगे बढ़ाए, तो यह बिहार के उनके वोटरों के बीच तो खप सकता है, लेकिन पासवान का मूल्यांकन किया जाए तो यह बात खटकने वाली रही।

अभी उन पर लिखे गए एक लेख में याद किया गया कि दलितों के बीच से आए हुए पासवान ने बहुजन समाज पार्टी या अंबेडकर की तरह से दलितों के लिए कोई आंदोलन नहीं किया, उनका योगदान बस इतना था कि जब दलितों से संबंधित कानून और संविधान संशोधन पर आंच आती थी, तो वे खुलकर बोलते थे। जहां तक पार्टी बनाकर राजनीति करने का सवाल है तो वे बिहार के लालू प्रसाद यादव के मुकाबले कहीं भी कम कुनबापरस्त नहीं थे।

अभी ताजा लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 6 सीटें मिलीं, जिनमें से 3 पर उनके भाई और उनका बेटा लड़े, और ये तीनों जीतकर संसद भी पहुंचे। पासवान की पार्टी उत्तर भारत की उन बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियों की तरह रहीं जहां एक कुनबे से सारा कारोबार चलता है, और मुलायम से लेकर लालू, और मायावती तक की पार्टियां अपने-अपने कुनबे के कब्जे में ही हैं, इस नाते पासवान भी भाई-भतीजे के ही भरोसे पार्टी चलाते रहे। संसद की बहसों में दलित मुद्दों पर मजबूती से बात करने के अलावा पासवान ने किसी भी स्तर पर दलित लीडरशिप विकसित की हो, ऐसा उनके इतिहास में कहीं दर्ज नहीं हो सकता।

पासवान के बारे में जिन जानकार लोगों ने लिखा है, उनका यह भी मानना है कि उन्होंने अपने मंत्रालयों के भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कुछ नहीं किया। हालांकि कल उनकी जायदाद की जो जानकारी सामने आई है वह लंबे राजनीतिक जीवन के मुकाबले कुछ भी नहीं है, और उन्होंने कोई भ्रष्ट साम्राज्य खड़ा किया हो, ऐसा आरोप भी किसी का नहीं है, लेकिन उनकी राजनीतिक कामयाबी अपने और अपने कुनबे की चुनावी जीत तक सीमित रही यह जरूर कहा जाएगा।

पहली पत्नी को छोडऩे को अधिक मुद्दा बनाना इसलिए जायज नहीं होगा क्योंकि बचपन में जब शादियां हो जाती हैं, और जोड़ीदारों में से जब कोई एक अचानक कामयाबी की एक अलग दुनिया में पहुंच जाते हैं, तो ऐसी शादियां बेमेल हो जाती हैं, और बहुत से मामलों में ये टूट जाती हैं। दूसरा यह कि बिहार की जिस पिछड़ी बिरादरी से वे आए थे, उसमें हो सकता है कि आज से 25-30 बरस पहले बेटियों को पढ़ा-लिखाकर आगे बढ़ाना उन्हें न सूझा हो, और किसी का मूल्यांकन उनके देश-काल, और उनकी पृष्ठभूमि को देखते हुए ही करना ठीक रहता है।

रामविलास पासवान एक बहुत ही कामयाब, और बहुत ही चर्चित दलित नेता रहे, लेकिन उनकी वजह से दलितों की जमीनी हकीकत बेहतर हुई हों, ऐसी कोई मिसालें पिछले दो दिनों में उनके बारे में लिखी गई बातों में पढऩे नहीं मिलीं। पहली बार केन्द्रीय मंत्री बनने के बाद तो उन्हें लगातार यह मौका था ही कि वे दलितों की बेहतरी की कोशिश करते, लेकिन उनसे जुड़ी खबरों में कभी ऐसी कोई बात सुनाई नहीं पड़ती थी।

रामविलास पासवान भारतीय संसदीय जीवन के मौसम विज्ञानी की तरह याद रखे जाएंगे, और बिहार विधानसभा के होने जा रहे चुनाव यह साबित करेंगे कि उनके बिना उनका बेटा पार्टी को कहां पहुंचा सकता है।

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