कबीर की लाज रखना, आपसे बड़ी उम्मीद हैं-प्रहलाद जी !

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  • कबीरपंथी गायक प्रहलाद टिपाणिया अब देवास -शाजापुर से कांग्रेस उम्मीदवार हैं। कबीर की निर्गुणी धारा वाले इस गायक के लिए राजनीति के साथ साज और आवाज मिलाना कैसा होगा

नवीन रांगियाल (फेसबुक वॉल से साभार )
गाम लुनियाखेड़ी है। रात के एक मुहाने पर अंधेरे में कुछ लाइटें चमक रहीं हैं। एक कोने से झांज और मंजीरों की आवाजें आ रही हैं। हॉरमोनियम की खरज लोककला की एक ऐसी दुनिया में ले जा रही है कि वहां से वापस शहर आने का मन नहीं करता। निर्गुणी प्रदलादसिंह टिपानिया की आंखें बंद हैं। उनके हाथों में तंबुरा झनक रहा है। सतरंगी साफ़े पहनकर उनके पास बैठा उनका पूरा कुनबा भी निर्गुण भजनों में ग़ुम है। एक मंच पर टिपानिया कुनबा कबीर को गा रहा है। दूसरी तरफ एक खेत में कैलाश खेर का बेटा कबीर धूल-मिट्टी से खेल रहा है। एक तरफ गुजरात के कच्छ इलाके के मुरालाला बेठे ऊंघ रहे हैं। भूत भावन भगवान भोलेनाथ से कुछ ही दूर यह अजब गाम है। गाम है लुनियाखेड़ी।

‘थारा रंगमहल में, अजब शहर में, आजा रे हंसा भाई, निर्गुण राजा पे, सगुण सेज सजाई’ इस भजन का मुखड़ा ख़त्म होता है। और फिर अंतरा शुरू होता है तो मैं उसके टेक्स्ट में उलझ जाता हूं। स्याह रात के अंधेरे में कंबल ओढ़कर बैठे हजारों अजनबी हंसों के बीच इन टेक्स्ट का क्या अर्थ हो सकता है। गंदे और मेले-कुचेले कपड़ों में यहां आए सुनकार अपनी आत्मा का कौनसा कोना पवित्र करना चाहते हैं प्रहलाद जी के भरोसे?
‘‘अरे हां रे भाई… उणा देवरिया में देव नाहीं झलर कुटे गरज कसी, उणा मंदरिया में देव नाहीं, झलर कुटे गरज कसी’’इन टेक्स्ट का जो मतलब निकलकर आया वो कुछ यूं था- मंदिरों में, देवस्थानों में कोई देव या भगवान नहीं हैं, वहां कुछ नहीं होता है, तुम किस गरज से वहां जाते हो, क्या इच्छा है, वहां घंटा क्यों बजाते हो?

यह कहनी कबीर की है, और गाया प्रहलाद जी ने। कभी प्रहलाद जी को इसलिए सुनना शुरू किया था कि जैसा कबीर ने लिखा, वो उसे ठीक वैसे ही ठेठ, खरज और रॉ फॉर्म में सुनाते हैं। उनके पास एआर रहमान की तरह वर्ल्ड क्लास का ऑरकेस्ट्रा नहीं है। चंद साजिंदे हैं वो भी अपने घर के।- तो कबीर की ‘कहनी’ ऐसी देशज ध्वनि में सुनने को मिल जाए तो अपने लिए इससे बड़ी मौसिक़ी क्या हो सकती है। …जैसे मरने से कुछ ही दिनों पहले हमारे पुरखे घर में निर्गुण गा रहे हैं और उसे सुनते-सुनते हम अपने आंगन में बड़े हो रहे हैं। शायद आत्मा को लगी उसी चाट की वजह से प्रहलाद जी के निर्गुणों को सुनना शुरू किया होगा। शायद इसीलिए कुछएक साल तक उनकी कबीर यात्रा की संगत भी की हमने। लगता था जैसे कबीर के साये-साये चल रहे हैं हम। इसी संगत में मुरालाला मिले, पार्वथी बाउल मिलीं। और लक्ष्मण दास मिले। फिर प्रहलाद जी ही वो डगर थे, जिसको पकड़कर हमने मुकुल शिवपुत्र और फिर पंडित कुमार गंधर्व की राह ली।

रात, अंधेरों और कबीर के भजनों से जिंदगी को क्या हासिल हो सकता है? उल्टा ऐसी फक्कड़ मिज़ाजी मिली कि वक्त से पकड़ भी ढीली हो चली है। कोशिश रहती है कि तालमेल बैठा रहे हाईस्पीड और रीयल टाइम लाइफ से, लेकिन फिर भी मोर अ लेस जिंदगी में कबीर नमक की तरह मौज़ूद रहते हैं। जैसे ग़ालिब कहा करते थे- ग़ालिब छुटी शराब पर अब भी कभी-कभी… पीता हूं रोज ए अब्र ओ शब ए माहताब में…

…तो अब तक यह समझ में आया कि दुनिया चाहे कितना ही बदल क्यूं न गई हो, हमारे हिस्से का नमक उसमें मौजूद रहना चाहिए। प्रहलाद जी टिपानिया भी पहले मालवा में, फिर हिंदुस्तान में और फिर इंटरनेशनली कबीर के नमक की तरह दुनिया में उपस्थित रहे। वो कबीर के लिखे टेक्स्ट का ऐसा गद्य बन गए, ऐसा गान बन गए जिसकी मदद से हम जिंदगी के तमाम अंधेरों में भी खुद को उस टॉर्च से देखते रहे। उन्हें देख-सुनकर अपनी आत्मा को सींचने की कोशिश करते रहे।
लेकिन प्रहलाद जी का क्या? कहां मयखाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहां वाइज? कहां कबीरियत और कहां सियासत? काजल की काली कोठरी में दाख़िल होकर प्रहलाद जी अपना नमक छोड़ रहे हैं? अपने खेत के मंच से ‘उणा देवरिया में देव नहीं’ होते का ज्ञान देने वाले प्रहलाद जी अब सियासत में कौनसा विश्वास जगाएंगे? कबीर के साये में रहकर पूरी दुनिया में भक्ति का अलख जगाने वाले प्रहलाद जी सियासत में कौनसा उजियारा करने आए हैं। ईश्वर के निर्गुण और निराकार अस्तित्व में भरोसा करने वाले प्रहलाद जी राजनीति के अजब शहर में कौनसा देव ढूंढने आए हैं, अपना नमक छोड़कर? प्रहलाद जी नो पॉलिटिक्स प्लीज,

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