बेहतर जजों की तैनाती बिना बेहतर इंसाफ नामुमकिन…

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सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

यह तो अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने बाम्बे हाईकोर्ट के एक फैसले को रोक दिया है जिसमें वहां की एक महिला जज, जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला ने एक बच्ची के साथ सेक्स की कोशिश कर रहे एक अधेड़-बुजुर्ग की सजा घटा दी थी कि जब तक सेक्स की नीयत से चमड़ी का चमड़ी से संपर्क न हो तब तक कपड़ों के ऊपर से बच्ची के सीने को दबोचना यौन शोषण के दर्जे में नहीं आता।

खबर आने के कुछ घंटों के भीतर ही हमने लिखा था कि यह आदेश सुप्रीम कोर्ट को तुरंत खारिज करना चाहिए वरना इसकी मिसाल देश भर में बलात्कारी देने लगेंगे। यह तो अच्छा हुआ कि दो-चार दिन के भीतर ही सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा.

लेकिन कुछ हफ्ते पहले का मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का एक दूसरा आदेश इसी तरह खबरों में आया था जिसमें जेल में बंद बलात्कार के एक आरोपी की जमानत के लिए जज ने शर्त रखी थी कि वह जाकर शिकायतकर्ता बलात्कार की शिकार से राखी बंधवाकर आए तब उसे जमानत मिलेगी।

जजों का यह पूरा का पूरा सिलसिला ही इसलिए खतरनाक है कि यह हाईकोर्ट या उससे भी ऊपर की जजों को तानाशाह किस्म के अधिकार देता है, और जज बनने के लिए सामाजिक सरोकार, सामाजिक समझ इसकी अनिवार्यता नहीं रखता है।

दुनिया के सामने अदालतों और जजों को लेकर लोकतांत्रिक देशों में कई किस्म की मिसालें हैं, और देशों को एक-दूसरे से सीखना चाहिए। अमरीकी न्यायपालिका में सबसे बड़ी अदालत में अगर किसी जज की तैनाती होनी है, तो उससे वहां की संसद की कमेटी, या कमेटियां, लंबी पूछताछ करती हैं।

यह सुनवाई सार्वजनिक होती है, और इसे बाकी लोग भी देख सकते हैं। जज बनने की कगार पर खड़े हुए लोगों से सांसद उनकी धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक सोच के बारे में लंबे सवाल-जवाब करते हैं, और उनकी जिंदगी के बारे में पता लगी किसी विवादास्पद बात के बारे में भी।

जज बनने के पहले लोगों को अपना दिल-दिमाग सांसदों के सामने खोलकर रखना पड़ता है, वे गर्भपात जैसे विवादास्पद अमरीकी मुद्दे पर क्या सोचते हैं यह भी सामने रखना पड़ता है।

भारत में किसी का हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज बनना एक बड़ा रहस्यमय सिलसिला है। इस देश के सुप्रीम कोर्ट ने अपनी खुद की कॉलेजियम नाम की एक संस्था बना ली है जो निचली अदालतों के जजों, और बड़ी अदालतों के वकीलों में से हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज बनाने लायक नाम छांटती है।

जिसके बाद ये नाम सरकार को भेजे जाते हैं, और सरकार इन नामों की छानबीन करके इनमें से कुछ को मंजूरी देती है, और कुछ नामों को ठोस आधार पर रोकती है। यह सिलसिला गोपनीय रहता है, और इसी नाते रहस्यमय भी रहता है।

बीती कई सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के इस तानाशाह-एकाधिकार को तोडऩे की कोशिश भी की कि जज खुद ही जज नियुक्त न करें, और उसमें सरकार या संसद की भी भूमिका रहे।

हम इसमें सरकार के दखल के तो हिमायती नहीं हैं क्योंकि भारत में आम समझ यह कहती है कि सरकार अदालत से अधिक भ्रष्ट है। लेकिन जजों की नियुक्ति न्यायपालिका का एकाधिकार रहे, यह बात भी ठीक नहीं है।

जिन दो फैसलों को लेकर हम आज इस मुद्दे पर लिख रहे हैं, वे दो फैसले महज नमूना हैं। वैसे और भी बहुत से मनमाने फैसले हैं, या जजों की कही गई ऐसी बातें हैं जो कि सामाजिक न्याय की उनकी बहुत कमजोर समझ का सुबूत भी हैं।

हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज बनाए जाने के पहले संसद की कमेटियां इनकी औपचारिक सुनवाई करें, और उनसे पूछे गए सवाल, उनके दिए गए जवाब रिकॉर्ड में लाए जाएं, उसके बाद ये दस्तावेज एक बार कॉलेजियम को भेजे जाएं, ताकि वह अपनी सिफारिशों पर फिर से गौर कर सके, और उसके बाद ही वे नाम सरकार को कमेटी की कार्रवाई के दस्तावेज सहित भेजे जाएं ताकि सरकार भी उन पर गौर करते हुए कमेटी की कार्रवाई को देख सके।

ऐसे किसी भी फेरबदल या सुधार के खिलाफ एक बड़ा तर्क खड़ा कर दिया जाता है कि देश के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों के सैकड़ों पद खाली पड़े हुए हैं, और उन्हें भरने में देर होने से मामलों के गट्ठे और बढ़ते चल रहे हैं।

जजों की ये खाली कुर्सियां रातोंरात तो खाली हुई नहीं है, यह बरसों की लापरवाही और अनदेखी का नतीजा है। इन्हें भरते हुए कमजोर सामाजिक समझ के लोगों को जज बना देना कोई बहुत अच्छी बात भी नहीं रहेगी क्योंकि वैसे जज रिटायर होने तक बेइंसाफी करते रहेंगे। हमारी सलाह से यह पूरा सिलसिला कुछ महीने और लेट हो सकता है, लेकिन उससे बेहतर जज तैनात होंगे और देश में बेहतर इंसाफ होगा।

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