सयुंक्त विपक्ष यानी घोड़े की घास से दोस्ती !

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छह महीने बाद जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें कांग्रेस एक बार फिर एक ताकतवर पार्टी बनकर उभरने की संभावना रखती है। उसकी तेलंगाना और मिजोरम में तो संभावना नहीं है, लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ में उसकी अच्छी संभावना हो सकती है,

सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

झारखंड के मुख्यमंत्री कल जब दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े से मिले, तो उसमें कोई अटपटी बात नहीं थी क्योंकि झारखंड की सरकार में कांग्रेस एक भागीदार भी है, और कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस एक मजबूत मोदी विरोधी ताकत बनकर उभरी है, इसलिए एनडीए विरोधी पार्टियों का कांग्रेस के आसपास आना अब स्वाभाविक ही है।

लेकिन इसके साथ-साथ 2024 के आम चुनाव को देखते हुए यह भी देखना होगा कि आने वाले महीनों में देश का माहौल क्या रहता है? छह महीने बाद जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें कांग्रेस एक बार फिर एक ताकतवर पार्टी बनकर उभरने की संभावना रखती है। उसकी तेलंगाना और मिजोरम में तो संभावना नहीं है, लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ में उसकी अच्छी संभावना हो सकती है, जहां तक बाद में आम चुनाव में लोकसभा में भी काफी सीटें रहेंगी।

यह एक अलग बात है कि इन तीनों ही राज्यों में उसे दूसरी पार्टियों से किसी तालमेल की जरूरत नहीं है, और कांग्रेस अपने दम पर वहां सत्ता में आने की संभावना रखती है। इसलिए 2024 की विपक्षी तस्वीर को छह महीने बाद के इन चुनावों के बाद देखने की जरूरत है जब कांग्रेस और ताकतवर दिख सकती है।

आज मोदी और एनडीए विरोधी गठबंधन में कांग्रेस के अलावा ऐसी कोई राष्ट्रीय पार्टी नहीं है, जिसकी कि पूरे देश में मौजूदगी हो। विपक्षी गठबंधन के नेता और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की हसरत कई दूसरे नेताओं में हो सकती है, और अब तक नीतीश कुमार, ममता बैनर्जी, केसीआर जैसे कुछ लोग खुलकर सामने आ भी चुके हैं, लेकिन जरा सी मजबूत हो जाने के बाद कांग्रेस अब एक स्वाभाविक पसंद हो सकती है।

कल की ही एक खबर है कि कर्नाटक के नतीजों के बाद ममता बैनर्जी का रूख कांगे्रस के प्रति कुछ बदला हुआ दिख रहा है, अभी तक वे कांग्रेस से खासा परहेज कर रही थीं, लेकिन कर्नाटक के बाद अब वे तालमेल की बात कर रही हैं।

यह बात समझने की जरूरत है कि मोदी के खिलाफ विपक्ष जब तक बंटा रहेगा, तब तक मोदी राज करते रहेंगे। दूसरी तरफ अगर विपक्षी पार्टियों में एक जायज तालमेल के साथ अगर एकता कायम हो सकती है, हर कोई अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा थोड़ी-थोड़ी छोडक़र, थोड़ी-थोड़ी नरमी बरतकर साथ आने को तैयार हों, तो 2024 मोदी के लिए खासा मुश्किल भी हो सकता है।

विपक्ष की राह बहुत आसान इसलिए भी नहीं है कि क्षेत्रीय स्तर पर भी परस्पर विरोधी क्षेत्रीय पार्टियों के हित आपस में बहुत बुरी तरह टकराते हैं, और विपक्ष का कोई भी गठबंधन इन सबको साथ में नहीं ला सकता। मिसाल के तौर पर बंगाल में ममता और वामपंथी किसी तालमेल में नहीं आ सकते, यूपी में सपा और बसपा में खासी कड़वाहट है, और इन दोनों को ही कांग्रेस से बड़ा परहेज है।

ऐसा हाल जगह-जगह है, पंजाब और दिल्ली में आप भी है, भाजपा और कांग्रेस भी हैं, और अकाली भी हैं, जिनकी कि बसपा के साथ अभी-अभी दोस्ती हुई है। अब इनमें से मोदी विरोधी गठबंधन में कौन रह सकते हैं यह साफ नहीं है, लेकिन सारे के सारे लोग तो रह नहीं सकते।

लोगों को लोकसभा के आम चुनाव में मोदी का विरोध तो करना है, लेकिन अपने प्रदेश में अपने अस्तित्व को भी बचाकर रखना है। अब अगर घोड़ा घास से दोस्ती करेगा, तो खाएगा क्या? इसी हिसाब से हर प्रदेश की स्थानीय राजनीति वहां की क्षेत्रीय पार्टियों की राष्ट्रीय जिम्मेदारी पर बहुत बुरी तरह हावी रहेंगी।

यह भी एक वजह है कि राष्ट्रीय स्तर का गठबंधन चाहे वह एनडीए हो, चाहे वह यूपीए का कोई नया संस्करण हो, उसे किसी राष्ट्रीय पार्टी की लीडरशिप में होना चाहिए। अब आज कांग्रेस के अलावा बाकी सारे नेता जो राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के दिख रहे हैं, वे क्षेत्रीय पार्टियों के हैं।

कांग्रेस के साथ एक खतरा यह दिख रहा है कि कर्नाटक की जीत उसके कुछ नेताओं के दिमाग पर चढ़ सकती है, और वे किसी संभावित राष्ट्रीय गठबंधन को लेकर बेदिमाग और बददिमाग बातें कर सकते हैं। आज का वक्त सबसे बड़ी पार्टी के दिल सबसे बड़े रखने का है।

कांग्रेस को सबसे समझदारी से बात करना चाहिए, बल्कि जरूरत हो तो पार्टी को अपने नेताओं में से कुछ को छांटकर अधिकृत करना चाहिए कि वे लीडरशिप से चर्चा करके ही विपक्षी एकता की संभावनाओं के बारे में कुछ बोलें। गैरजरूरी जुबान जमाखर्च से बनती हुई बात भी बिगड़ जाती है, और कांग्रेस ऐसी चूक पहले भी कई बार करते आई है। आज सबसे अधिक संभावनाएं कांग्रेस की लीडरशिप की है, और उसे ही सबसे बड़ा दिल दिखाना चाहिए, सबसे कम बोलना चाहिए।