ट्विटर के डर -समाचार और विचार के एकाधिकार पर निगरानी

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सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

दुनिया के एक सबसे बड़े कारोबारी एलन मस्क के ट्विटर खरीदने के बाद अब इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को इस्तेमाल करने वाले लोगों और आजादी के हिमायती, लोकतंत्र की फिक्र करने वाले लोगों में यह अटकल लग रही है कि एलन मस्क की इस नई मिल्कियत का क्या रवैया रहेगा?

अभी जो सौदा हुआ है और जो जल्द ही पूरा होने जा रहा है उसके मुताबिक ट्विटर अब शेयर बाजार में दर्ज एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी के बजाय एलन मस्क की एक प्रायवेट लिमिटेड कंपनी रहेगी, और उस पर अकेले उनकी मर्जी चलेगी।

इस कारोबार की बहुत बारीकियों तक जाना हमारा मकसद नहीं है, लेकिन यह बात समझने की है कि ट्विटर अब तक कंपनी के हजारों-लाखों शेयर होल्डरों के प्रति जवाबदेह थी, मुनाफे के लिए भी, और अपनी नीतियों के लिए भी।

लेकिन अब वह सिर्फ एक अकेले मालिक की पसंद और नापसंद पर चलेगी। हो सकता है कि इस सौदे की वजह से हर बरस कर्ज की जो किस्त चुकानी होगी, उसके चलते हुए एलन मस्क को कई तरह के समझौते भी करने पड़ें, और वे अब तक ट्विटर पर आजादी की जैसी वकालत करते आ रहे थे, उसे पूरा न भी कर पाएं।

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लेकिन ऐसा न होने पर भी लोगों का यह सोचना तो जारी रहेगा कि आजादी के हिमायती नए मालिक का रूख दुनिया में विचारों को प्रभावित करने वाले इस प्लेटफॉर्म को कैसी शक्ल दे सकता है? इससे दुनिया के अलग-अलग किन हिस्सों में लोकतंत्र पर क्या असर पड़ेगा?

इस बारे में जो चर्चा चारों तरफ चल रही है उनमें यह भी है कि आजादी के मायने अलग-अलग संदर्भ में अलग-अलग होते हैं, और ट्विटर पर ट्रम्प जैसी अराजकता और उस दर्जे के झूठ को भी अगर आजादी दी जाती है, तो वह दुनिया के लोकतंत्र के खिलाफ रहेगी, धरती के हितों के खिलाफ रहेगी।

लेकिन अगर यह आजादी ट्विटर पर झूठ, हिंसा, और अश्लीलता पर रोक के साथ रहेगी, तो वह जनकल्याणकारी भी हो सकती है। एक बड़ा फर्क जिसका वायदा एलन मस्क ने किया है उसे ट्विटर से परे भी दूसरे संदर्भों में भी देखने की जरूरत है।

उन्होंने कहा है कि ट्विटर के कम्प्यूटरों का प्रोग्राम, एल्गोरिद्म, किसी ट्वीट को कम या अधिक कैसे दिखाता है, किसे दिखाता है, किससे छुपाता है किस्म की बातें वे सार्वजनिक और पारदर्शी कर देंगे। ऐसा होने पर कम्प्यूटरों के जानकार लोग यह देख-समझ पाएंगे कि अपने एल्गोरिद्म के पीछे ट्विटर की सोच क्या है, उसका तर्क क्या है, उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं।

यह बात वैसे तो तमाम सोशल मीडिया पर लागू होनी चाहिए, लेकिन फेसबुक जैसे सोशल मीडिया लगातार अपने एल्गोरिद्म को छुपाते रहते हैं, और फेसबुक इस्तेमाल करने वाले लोगों की जानकारियों का बाजारू इस्तेमाल भी करते हैं, और देशों की जनता को प्रभावित करने की साजिश में शामिल भी होते हैं।

इसलिए अगर एलन मस्क के मातहत ट्विटर अधिक पारदर्शी होता है, तो हो सकता है कि वह अधिक लोकतांत्रिक भी हो। बस यही देखने की बात रहेगी कि लोकतंत्र में जिस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ अनिवार्य रूप से जिम्मेदारियां भी जुड़ी रहती हैं, उन्हें ट्विटर आने वाले दिनों में किस तरह लागू करेगा।

एक दूसरी बात जो ट्विटर पर चर्चा से शुरू हो रही है लेकिन जो पूरी दुनिया में लागू होती है, वह है एक मालिक के मातहत काम करने के नफे और नुकसान। यह तो तय है कि एलन मस्क अपने फैसलों को ट्विटर पर पल भर में लागू करवा सकते हैं, लेकिन ये फैसले क्या सचमुच ही जनकल्याणकारी हो सकते हैं, या फिर वे एक कामयाब कारोबारी के एक और कारोबारी फैसले से अलग नहीं रहेंगे?

व्यापार हो या सरकार हो, यह बात समझने की है कि किसी व्यक्ति की नीयत कितनी भी अच्छी क्यों न हो, अगर उसके हाथ असीमित ताकत है, तो उसके अपने खतरे रहते हैं। जिस तरह किसी लोकतंत्र में अपार ताकत रखने वाले किसी नेता के साथ होता है, वे शुरू में जनकल्याणकारी लग सकते हैं, बाद में उनके तानाशाही रूख के बावजूद वे जनकल्याणकारी-तानाशाह हो सकते हैं, और उसके बाद लोगों को यह अहसास भी नहीं होता कि जनकल्याणकारी शब्द कब धुंधला हो गया, और कब सिर्फ तानाशाह शब्द बच गया।

जिन सरकारों, राजनीतिक दलों, सामाजिक संस्थाओं, में ऐसे जनकल्याणकारी लोग तानाशाही मिजाज के साथ रहते हैं, उनका कल्याण वाला हिस्सा कब तानाशाह हिस्से के सामने कुर्बान हो जाता है, यह पता भी नहीं चलता।

हमने हिन्दुस्तान की राजनीति में, सरकारों, और पार्टियों में कई बार ऐसा देखा है कि घोषित रूप से जनकल्याणकारी नेता या कार्यक्रम कब आपातकाल के खलनायक संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम में बदल जाते हैं, और फिर ये पांच सूत्र भी गायब होकर पांच खलनायकों का एक गिरोह बच जाता है।

इसलिए दुनिया को किसी एक व्यक्ति की अंधाधुंध ताकत को बहुत जनकल्याणकारी मानकर नहीं चलना चाहिए। आज शेयर होल्डरों के प्रति जवाबदेह रहने के बावजूद फेसबुक की कंपनी में उसके संस्थापक और उसे चलाने वाले मार्क जुकरबर्ग की जो मनमानी चल सकती है, या चलती है, उस ताकत को कम नहीं आंकना चाहिए, और वह कब दुनिया में लोकतंत्र की जगह तानाशाही को जायज ठहराने लगेगी, इस खतरे को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए।

दुनिया में समाचारों और विचारों को प्रभावित करने वाली मीडिया या सोशल मीडिया कंपनियों पर किस किस्म का मालिकाना हक है, उनका कितना काबू है, इसे कभी भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। आज विकसित दुनिया की खुली बाजार व्यवस्था विचारों के कारोबार पर एकाधिकार को रोक पाने की ताकत नहीं रखती है, लेकिन समाज के लोगों को तो ऐसे खतरों से सावधान रहना चाहिए।

 

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